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हरियाई लगे है मुरझाई लता द्वार की

हरियाई लगे है मुरझाई लता द्वार की कहां आया भटकता हुआ तूं अजनबी  हूर का दीदार करने हीर की इस गली । तेरी निग़ाहों ने ऐसा क़तल क्यों किया कि ज़िबह होते गए दिल के रुतबे मेरे हाथ खड़े कर दिए रसूखी प्रहरी सभी  टूटते गए इख़्तियार के सभी क़ब्ज़े मेरे । तुमने दीदा से दिल का हरफ़ पढ़ लिया नाम अपने वसीयत ज़िगर की लिखाई जादूई रंग भर दिया खाली कैनवास में कि हाथ मैंने मोहब्बत की मेंहदी रचाई । कोई अक़्स देखे न चश्म में महबूब की दुनिया से कटकर फ़र्लांग भरने लगी हूँ जमीं पर चांद गगन से उत्तर आया लगे तांत हसरतों के दिन-रात बुनने लगी हूँ । चुपके आके पवन कान कुछ कह गई हरी लगने लगी मुरझाई लता द्वार की भर लिया फाग का रंग ओढनी में सब छू रहा अम्बर चरन पूछ पता प्यार की । ज़माने की परवाह पीछा ना करती रहे तोड़ आई रिश्ते सभी पाषाणी नगर से किस्मत की लकीरों पे  दास्ताँ छोड़कर  अस्त सूरज के पहले चली आई घर से । चोरी के अब तक पड़े हैं जालिम निशां नकब  सीने में आँखों से तूने लगवाई जो देख वदन की उधे...

माँ लौट आऊँगा जब भी दोगी सन्देश

माँ लौट आऊँगा जब भी दोगी सन्देश संग ले गया वह घर की रौनक़ें सारी बुढ़ापा संग सांय-सांय करे फूलवारी, सावन भादों सी झर-झर बरसें आँखें जबकि बरसात का मौसम बीत गया सरहद पार बसे किसी और मुल्क़ जा उन औलादों के विषय में क्या कहना , किस मोहपाश में बांध रखी फिरंगन कि भूला गाँव,गली शहर अपना देश आँखों में सपने भर जो कह गया था   माँ आ जाऊंगा जब भी दोगी सन्देश , बूढ़ी हो गईं आँखें अब तो इंतजार कर शिथिल पड़े उमड़ता ममता का सागर जाने कब बाती गुल हो जाये दोनों की हृदय के ख़्वाब सुनहरे रह जाएँ क़ातर  पहले यदा कदा पाती भी आ जाती थी अब तो वह कड़ी भी धीरे-धीरे टूट गई जाने कब आएंगे परदेश को जाने वाले सांसों की डोर शनैः-शनैः अब छूट रही अपनी मंज़िल छोड़ मंज़िल तलाशने निकला था घर से अपनों से दूर बहुत माँ-बापू का कांधा भूल खो गया कहाँ कभी न मुड़कर देखा हृदय शूल बहुत , जमीन,ज़ायदाद,मकान जिनके लिए, किये,यत्न से तृण-तृण पाई-पाई जोड़ उस घर का देखो...

नाता तुड़ा दिया नईहर के सारे

अभी-अभी बेटी की शादी करके लौटी हूँ बेटी विदा करने का उद्वेलन क्या होता है बेटी वाला ही जान सकता है ,मैं भी अपने बाबूजी की बेटी थी ,अपने प्रियजनों से जुदा होते समय बेटी के मन में क्या आन्दोलन होता है ,वही हृदयस्पर्शी भाव मेरी कविता में व्यक्त है ,यह  हर बेटी की पीड़ा का असह्य व्याख्यान है । पिता ने लाड़ की नदी बहाई माँ ने ममता का सागर भैया के स्नेहिल बाँहों  की बड़ी हुई ओढ़कर चादर , परम्परा के निर्वहन में, मैं रीति की भेंट चढ़ा दी जाऊँगी कोई घोड़ी चढ़कर आएगा डोली में बिठा दी जाऊँगी , गाजे-बाजे साथ बाराती वर आया धूमधाम मेरे द्वारे चुटकी भर सिंदूर मांग भर नाता तुड़ा दिया नईहर के सारे, फूट-फूट रोई माँ मेरी पिता ने रुँधे गले दी ढाढ़स भैया विलख दिए कांधा सौंप दी अपनी पूँजी पारस , आँसुओं की छछनी बाढ़ भी जुदा करने से रोक नहीं पाई सर पे डाल ओहार चूनर की कर दी गई मेरी विदाई , जब से जनम लिया है सुनती आई पराई धन हूँ ये कैसी है विडम्बना ,मैं तुलसी और किसी आँगन हूँ , स्वयं लहू से सींचा माँ ने पिता ने धन दौलत था समझा भैया ने न...

कुछ पंक्तियाँ बिखरी-निखरी

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१-- कभी काजल के मानिन्द बसे हम उनकी बेजार निगाहों में अब नौबत कि नजरें चुराकर बगल से गुजरा करती उनकी , २-- मेरे ख़्वाबों में दबे पांव आता है कोई आकर मुझे  नींदों से जगाता है कोई , ३-- कम्बख़्त नज़र एक सी आग लगाई दोनों तरफ वहाँ करार उन्हें नहीं इधर चैन बेक़रारी को नहीं , ४-- जल कर मोहब्बत में दिन-रात दिल खाक़ कर लाए न बहारों का लुत्फ़ ले पाये न ख़िज़ाँ के साथ रह पाए , ५-- वायदों का अलाव जलाकर इन्तज़ार किया बहुत ऐतबार ने मगर क़त्ल किया है क़यामत की तरह , ६-- पाठ मोहब्बत का क्या पढ़ाया सबको भूला दिया तूने तो मासूम दिल पर  ऐसा कब्ज़ा जमा लिया पिला कर मय  निग़ाहों की दिखा  अदा के जलवे दूर ज़माने से किया  नकारा निकम्मा बना दिया , ७-- वहाँ घर उनके आई डोली इधर सर मैंने भी सेहरा बाँधा कितनी मजबूर मोहब्बत दुनिया से कर ना पाये साझा घर दोनों के रखना आबाद खुदा इतना तो रहम  करना जैसे राधा संग कांधा, इक दूजे के दिल में बसाये रखना । 8-- सूना कदम्ब सूना जमुना किनार...
हम सबकी परी नन्हीं परी कितनी प्यारी-प्यारी है माँ-पिता की राजकुमारी दादी-दादा घर पधारी है नानी-नाना की दुलारी नर्म फूलों सी सुकुमारी है मह-मह महकी फुलवारी सूने घर में ये अवतारी है बाँहें पालना नाना ने नन्हीं के लिए संवारी है नानी की सुन-सुन लोरी परी करती किलकारी है दीदी,भैया,मामी-मामा ने अंक भर नेह से पुचकारी है ताई-ताऊ सभी मौसियों ने परी की आरती उतारी है ।                           शैल सिंह

गले लग प्रेम का सूता सुलझाओ तो जानें

गले लग प्रेम का सूता सुलझाओ तो जानें ओ भारत के युवा प्रहरी जाबांज़  सिपाही कभी ना होना गुमराह बेतर्कों के झांसों में , बो कर नफ़रत का बीज भीड़ जुटाने वालों प्रेम मोहब्बत की ख़ुश्बू बिखराओ तो जानें क्यूँ निस्प्रयोजन तुम उलझाते हो आपस में गले लगा प्रेम का धागा सुलझाओ तो जानें , जन-मन की पूछ रही हैं सवालिया निग़ाहें  कहाँ गयी पहले वाली रौनक़ त्योहारों की सहमे भय,आतंक से बच्चे,बूढ़े,जवां पूछते  कहाँ गयी पहले वाली धूमधाम बाज़ारों की , कैसे ग्रहण लगा जीवन के मुस्काते रंगों को  कहाँ गया सम्मोहन हरे खेत खलिहानों का  खुद जीओ देश ,समाज ,पड़ोस को जीने दो होली जला,उपद्रवी कुंठित सोच विचारों का  , सपनों का महल बनेगा सजेगा,संवरेगा तब जब रक्षा करना सीखोगे दर औ दीवारों की अनेकता में एकता क्या होती  दिखलाना है    आवश्यकता है बेहतर जीवन में सौहर्द्रों की , प्रेम मोहब्बत इतना प्रगाढ़ बलवान बनायें सामाजिक समरसता के लिए आह्वान करें इंसान,दोस्ती की तस्वीर उजागर कर देखें मिलकर नफ़रत की खाई को शर्मसार करें...

वाह रे मिडिया वाले

वाह रे मिडिया वाले ,तेरी अच्छाई और बुराई दोनों ही चरम पर हैं ,सच्ची बातों के लिए आवाज़ बुलंद करते हो और कभी-कभी तिल का ताड़ बनाने में भी माहिर ,आजाद भारत में व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति भी स्वछंद और स्वतन्त्र रूप में व्यक्त करने की आजादी नहीं है ।किसी के मुँह से वकार क्या निकली कि तोड़-मरोड़कर  गलत तरीके से गुमराह करने और मतलब निकालने का महारत भी पास रख लेते हो । खैर बुद्धिजीवियों और समझदारों पर तो इसका कुप्रभाव नहीं पड़ता । एक बात तो सत्य है की मोदी की लोकप्रियता और प्रसिद्धि विरोधियों के गले की हड्डी बन गई है ,वरोधी पार्टियां तिलमिला-तिलमिला कर जल भून रही हैं । इसीलिए अनाप-शनाप गुद्दी में गुद्दी निकालती रहती हैं ,लालू इतना घटिया स्तर का भाषण देता है किसी पर जूं तक नहीं रेंगता और कोई सही बात भी बोले तो बवाल हो जाता है राबड़ी जैसे लोग विहार की वागडोर थाम सकते है , बोलने के लिए बहुत कुछ है पर बवाल और टीका टिप्पड़ी सहने की क्षमता नहीं है उददंड और उजड्ढ लोगों की की बेसिर पैर बातें सुनने के लिए ।             ...
सोनिया गांधी ……  , अपने घर से रुख़सती क्या ली भारत के राजकाज पर काबिज हो गई दो चार भाई होगी छोड़ी यहाँ भाइयों के रूप में हजारों सेवक पा गई घर की रहगुजर क्या भूली यहाँ हर रहगुजर पर तेरी तस्वीर लग गई ओ चिड़िया तूं जिस शज़र पर बैठी उस शजर पर और चिड़िया नहीं बैठी तुझे भारत में मोहब्बत ही नही मिली बल्कि सर आँखों पर बिठाया लोगों ने हम ये कैसे कहें तुम्हें हुकूमत प्यारी नहीं क्या हुकूमत बिन चाहे ही मिल गई तेरे चहरे ने इस सर जमीं का भाई चारा छिना एक से एक महारथियों का बाड़ा छीना तेरे पास जो था वो तुझसे ज्यादा हमारा था तेरे प्रेम जाल ने हमसे हमारा छिना यहाँ बहुत से बच्चों के सर का साया नंगा है बच्चों को भारत की संतान बनके रहने दे तूने गिरिजा छोड़ दिया जो तेरा था तूं शिवाला का क्या कभी हो पायेगी तकदीर बदलने के और भी रास्ते हैं  भारत की बहू-बेटी बनके रह वरना सम्मान से चूक जाएगी इक तूं ही बेवा नहीं हुई यहाँ हजारों लाखों बेवाएं हैं जो घर छोड़कर कभी मायके नहीं गईं तेरी वजह से नफ़रतों की दीवार खड़ी हुई बस चन्द नासमझों चाटुकारों की मसीहा ब...

मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों

मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों  बहारों का आनन्द लेती हूँ मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों  कि हवा के संग-संग बह जाऊँ , लोग सूखे पत्रों के मानिन्द बहक,हवा के साथ उड़ते हैं जिधर का रूख़ हवा का हो उधर ही हवा के साथ चलते हैं माहौल के अनुरूप देखा है कि हैं कुछ लोग ढल जाते जैसी जिस जगह की मांग वैसी तुरुप की चाल चल जाते , कड़वा सत्य बुरा होता मगर  मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों  सच से बहस में मैं मुकर जाऊँ , भला एक ही इन्सान कैसे जब-तब कुछ नज़र आता जुबां होती तो है एक मगर तरह-तरह की बात कर जाता , लिबास आचरण के उनके आश्चर्य,पल-पल बदलते हैं लोग भलीभांति जानते फिर  क्यूँ कसीदे तारीफ़ों के गढ़ते हैं मैं अडिग सही बात पे होती मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों  गिरगिटों का चोला पहन आऊँ , कहें भले लोग बुरा मुझको इसकी परवाह नहीं करती ईश्वर क्या देखता ना होगा चालबाज़ी चाल में है किसकी , चटुकारता की दुर्गन्धों से भभक उठते हैं नथुने मेरे उबटन लगाकर तेल संग क्यों उंगलियां मालिश करें मेरे , ...

ओ परदेशी

          ओ परदेशी     क्या बतलायें शहर की कोई भी चीज    अपने प्यारे न्यारे गाँव सी नहीं लगती    चाहे जितना खायें पिज्जा,बर्गर,नूडल    माँ के व्यंजन के स्वाद सी नहीं लगतीं , कच्ची गलियाँ अम्मा-बापू रखना याद घराना कैसे फड़फड़ायें देख परिंदे वीरां आशियाना , शहर को कूच करने वाले गाँव के मुशाफ़िर गाँवों की पगडण्डियां हृदय में बसाये रखना हिफाज़त से बुजुर्गों के नसीहत की पूँजी भी शिद्दत से सहेज कर आँखों में सजाये रखना , निशानियाँ मत करना जाते वक़्त की विस्मृत  उमड़ा रेला परिजनों का आँसू भरा ख़जाना  कहीं भूल ना जाना परदेश की आबोहवा में आँगने का छायादार नीम का दरख़्त पुराना , कभी ग़र याद में तड़पे दिल लड़कपन वाला वनवास छोड़ दहलीज़ अपने लौट आ जाना  रौशन हो जाएँगी फिर बेनूर हुयी बूढ़ी आँखें  रौनक पनघट पर भी जो बिन तेरे सूना-सूना ।                        ...

आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी मेरी

आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी हुई  मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की , मोम सा दिल बनाने की पाई मैं ऐसी सजा ठौरे-ठौर मोमबत्ती के मानिन्द जलाई गई मेरी सादगी ही बस आई ज़माने को नज़र मेरी हर बात हँसकर हवा में यूँ उड़ाई गई , मेरे आदर्शों उसूलों और सत्य की राहों को पग-पग पर भुगतना पड़ा ख़ामियाजा सदा भला साँच को आंच की कब परवाह हुई है झूठ की बुनियाद नहीं करना ईमारत खड़ा , पढ़ सकूँ चेहरों के पीछे की दोगली इबारतें हुनर सीखते-सीखते गुज़र गया इक जमाना झूठ फ़रेब का मोटा मुलम्मा चढ़ा अक़्स पर  लब पर आती हँसी नहीं काईयाँ सी दिखाना , आदतों में शुमार करना अकड़ मजबूरी हुई  वरना इज्ज़त से जीने के हक़ सभी छीनकर दुनिया कभी सिद्धान्तों पे तो चलने देगी नहीं करवाएगी मनमानी,बेईमानी भी मजबूर कर , मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई  ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,                                          शै...

ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है

''  ना  जाने क्यों मन आज उद्द्वेलित है '' जज़्ब कर नीर नैन का लाल दर्द सीने में ज़ब्त किया था कदमों में बिछा दुनिया की नेमतें सीने से जुदा किया था , क्यूँ मन की मौन तलहटी में ऐसी हलचल हो रही आज लगता कोई पीड़ा मथ रही लाल को जो छुपा रहा राज , भींचकर गम सीने में गुमसुम मत कभी रहना चुपचाप तेरे बेचैन साँसों के स्वर की भी माँ सुन लेती है पदचाप , तेरे अवयव की हर धड़कन मुझसे ही हो के गुजरती है गर बदली तुझ पर घिरती है तो वारिश मुझ पर होती है , माँ के व्यंजन की खुश्बू तेरे नथुनों तक भी जाती होगी माँ देख सामने थाली दृग से,छह-छह धार बहाती होगी , तूं जबसे दूर गया नयन से,मन अंदेशों में घिरा रहता है ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है , एक-एक निवाला हलक में मैं मुश्किल से उतार रही हूँ इक-इक दिन काट इंतजार में बाट बेसब्र निहार रही हूँ , जाकर परदेश में बबुवा मत परदेशी फिरंगी बन जाना माँ ताक रही रस्ता शिद्दत स...

जब-तब यादों का सोता उमड़ कर

जब-तब यादों का सोता उमड़ कर कहावत है तन बूढ़ा तो हो जाता है पर सच ,मन कभी बूढ़ा नहीं होता , पछुवा,पूरवा,भाटा,तूफान,बवण्डर आँधियाँ ना जाने कैसी-कैसी आईं फिर भी हृदय में जलता स्मृति का कभी अड़ियल दीया बुझा ना पायीं  , हिफ़ाज़त से अतीत को तस्वीरों में घर की दरों-दीवारों सजाये रखा है मैंने बचपन की यादों के हरेक पन्ने  ह्रदय के तलागार में दबाये रखा है , जब-तब उमड़कर यादों का सोता एकान्त में आर्द्र नयन कर जाता है खोल झरोखा दिखा परछाईयों को   खुशियों से सूना कोना भर जाता है , जीवन में जाने कितने आये गए पन पर सबसे सुन्दर अपना बचपन था यौवनपन की कुछ मीठी यादें साथ  संग इस पन में केवल चिन्तन आह, दिल बहका जी देख पुरानी तस्वीरें दिखा करते कैसे जवानी में हम भी पर सामने खड़ा यह हठात आईना  बता गया सच कहाँ आ गए हम भी , कैसा-कैसा विभिन्न रूप और रंगत  धारा है जीवन में यह माटी का तन पर परिस्थितियों के हर कैनवास पे  ख़ुद को सजा निख़ार कर रखा मन  , च...

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा जब दूर होगी हमसे,हिंदुस्तान से हिंदी फिर अंग्रेज़ी के साथ हमारा क्या होगा गंगा,जमुनी तहज़ीब संस्कृति,सभ्यता हमारे सनातन,धर्म का आगे क्या होगा , चन्द हिमायती अंग्रेजी को आबाद कर राष्ट्रभाषा का अनादर करते हैं कितना हमारी सांस्कृतिक विरासतों के गढ़ से  इसी मुई लिये लापरवाह रहते हैं इतना, अंग्रेजों को तो इस मुल्क से दिया खदेड़  ये अंग्रेजी यहाँ ठाठ से पोषित होती रही ग़फ़लत में हमारी इस सौतन भाषा संग   सनातनी धर्म पग-पग शोषित होती रही, अंग्रेजी की वक़ालत करने वालों की बस      मुश्किल से भारत में  मुट्ठी भर तादात  हिंदी करोड़ों भारतीयों के जुबां की रानी   भला कैसे करें पराई भाषा यहाँ बरदाश्त, न रंग-ढंग चाल-चलन रत्ती तहजीब ही   आदर-सम्मान छोटे-बड़ों का भाव नहीं ख़ाक़ करेगी बेअदब मुकाबला हिंदी का जिसमें देशप्रेमी रखते रंच भी चाव नहीं , मानते है...
'' हिंदी की महत्ता ''                                          जय हिंदी ,जय भारत ,       हिंदी पर लेख लिखने में अपार हर्ष और आनंद की अनुभूति हो रही है । हिंदी का सम्यक ज्ञान यदि मैं अपने लेख द्वारा थोड़ा भी जन मानस को दे सकूँ तो यह मेरे प्रयास की थोड़ी सी उपलब्धि होगी और अपनी लेखनी की कुशल शैली पर संतोष  और प्रसन्नता की अनुभूति भी होगी ।             बताते चलें कि विश्व में ८० करोड़ लोग हैं जो हिंदी को अच्छी तरह समझते हैं ,और ६० करोड़ विश्व में हिंदी बोलने वाले लोग हैं ।१४ सितम्बर १९४९ को वैधानिक रूप से हिंदी को राजभाषा का दर्ज दिया गया । संबिधान में अनुच्छेद ३४३ में यह प्रावधान किया गया है कि देवनागरी के साथ हिंदी भारत की राजभाषा होगी । हिंदी के माध्यम से आज रोजगार तथा कारोबार व्यवसाय के बड़े बाजार भी तमाम सम्भावनाओं के लिए दस्तक दे रहे...

बह गए रेत से सपने सारे

    बह गए रेत से सपने सारे  सोंधी ख़ुश्बू वातायन में बिखरा तो दी हो बरखा रानी टूटही छान से रिस-रिस कर घर में टपक रहा है पानी महलों के बाशिंदों को देती रिमझिम सावन की फुहार हम गरीबन पर गाज गिराती भसकी छप्पर हुए उघार जगह-जगह दरकाती धरती बेकाबू बरखा मूसलाधार बंगलों की बगिया महका के गमलों में फूल खिलाई हो यहाँ गुरबत की बखिया उधेड़ जंगल की बाड़ लगाई हो बजबजा रही हो घाव मनमाने उद्दंड बारिश की बूंदों से टीसों में भर दी हो सिहरन, तेज हवा साथ इन झींसों से डगमग मंझधार में जीवन नैया नहीं यहाँ कोई खेवनहार हम ही सहते हैं मार सूखा की हमें ही करती बाढ़ बेजार कर्ज़ों में धँसी है हड्डी पसली घुन सा शरीर में लगा बुखार , आग उदर की भड़काती झोंपड़ी के चूल्हे की ठंडी राख आँखें आसमान टकटकी लगा काटीं जाग के कारी रात महलों के सब दिन लगें गुलाबी हमारे सब फीके त्यौहार कजरी,विरहा भूल गए,आल्हा,उदल बिसरा गीत मल्हार चाँदनी फिसलती रही रैन में बंगलों,मेहराबों,गलियारों से छलक रही आँखें असहायों की टकराकर ढही दीवारों से दूधिया ...

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं  हमारा देश ' कृषि प्रधान देश ' के नाम से सबको मालूम,विश्व विख्यात है इसी देश के नौनिहाल अन्न उत्पाद कैसे होता अज्ञात हैं , अहाते की छोटी सी फुलवारी में पिछवाड़े की छोटी सी क्यारी में तड़ी पड़ी थी धान की बेटी सयानी पूछी मम्मा ये कैसी घासें हरी-हरी परिधान की मैंने बोला जरई है ये बोल रही क्या होता है ये  मैंने बोला रोपनी होगी बोली रोपनी क्या होता है मैंने बोला धान की रोपाई होगी बोली धान रोपाई क्या होता है मैंने बोला शर्म करो तुम राईस ब्रीडर की बेटी हो इसी घास को खाकर सब मटियामेट कर देती हो कृषि प्रधान देश में रहती हो केवल खाती पीती सोती हो रोपाई का मौसम है निहुर-निहुर रोप रही थीं मूल्यानी खेत ले जाकर उसे दिखाया देख ले खेती होती कैसे अज्ञानी जिन्होंने पढ़ते-लिखते कॅरियर बुनते गाँवों को कोसों पीछे छोड़ दिया क्या जानेंगे नवयुग के आज के बच्चे जिनने सब रिश्तों से मुँह मोड़ लिया जिनने खोली शहर में ऑंखें सुख वैभव की जिन्हें मिली विरासत उत्पादन कितने चरणों से होके गुजरता  क्या जाने ये लोग इनकी ऐसी नफ़ासत बेटी की सहेली औ...

खुद को सेंक दीए की लौ में ,

सींकती रही दीए की लौ में  अम्मा क्यूँ नहीं मुझको भी तूने  भैया सा घर में अधिकार दिया  हक़ मेरे हिस्से का काट-कपट  भैया को ही केवल प्यार दिया , मुझको भी गर ' पर ' मिलता  उड़ती-फिरती मुक़्त गगन में  माँ डाल सूरज के शहर बसेरा  सुर्ख़  सी उगती नील गगन में , स्वप्न सुनहरे ऊँचे-ऊँचे बूनती लिखती नित नई-नई इबारत दुनिया को दिखलाती क्या हूँ  किसमें हासिल मुझे महारत , मुक़्त पखेरू सी फ़िजां-फ़िजां माँ विचरण करती जी भरकर साँझ,भोर का डर,भय ना होता  चलती बेख़ौफ़ राह पर डटकर , चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें  शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें कंचन तन ढाला कांच में क्यों  कुतर दी गईं उड़ानों की पाँखें , बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी ससुराल पिया का घर कहती  है कौन सा घर मेरा बतलाओ माँ कहाँ बता मेरी निज धरती , कोई  भी मोल ना जाना मेरा  तोली गई जाने कित रूपों में जली दीया सी सबके लिए मैं खुद को सेंक दीए की लौ में , फरियाद करूँ किस...

हौसलों का दीप ना बुझने पाये

हौसलों का दीप ना बुझने पाये  भारत माँ के वीर जवानों तेरी जननी आज ललकारे बहा दो खून की होली जला दो जगमग दीप सितारे , रंग-रंग में तेरी जमा है इस धरती का खून पसीना स्वराज्य करो सपूतों खड़ी रहूँ मैं गर्व से ताने सीना सर झुके न बैरी के आगे मेरी अभिलाषा वीरों प्यारे बहा दो …… । इस पावन धरती पर गैरों का पदचाप न पड़ने पाये ओ वीर सिपाही तेरी धरती माँ न कभी तड़पने पाये ऋण अदा करना गौरव से भर आँचल माँ का दुलारे बहा दो  .......। कभी ना मानना हार पुत्रों ना पग पीछे कभी हटाना स्वतन्त्र रहे ये भारत भूमि दुश्मन के छक्के छुड़ाना जलता रहे निरन्तर हौसलों का दीया ना बुझने पाये बहा दो  ….…।                     शैल सिंह 

'' काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ''

काश कलम ग़र होती मेरी तलवार  मन में जब-जब जितने फूटे ज्वार बस हम बस कागज का पेट भरे कितने लाचार,मजबूर ,विवश हम जबकि खूँ में गर्मी जोश में है दम कैसे करें क्षरण इन उल्लुओं के उत्पात जो नहीं समझते सीधी-साधी बात छल ज़मीर में इनके संस्कार बदजात तभी तो करते बार-बार विश्वासघात हमने बस ईमान का पाठ पढ़ा और शांति,सद्भाव का यज्ञ किया नैतिकता में बंधे रहे ,संविधान का मान किया ताजीवन दूध पिलाते रहे संपोलों को और खुद बार-बार विषपान किया कितने हुए शहीद सपूत यहाँ के कितने अभी और शहादत देंगे लाल अभी और कितनी बार सहेंगे वार काश कलम ग़र होती मेरी तलवार हौसलों को मसि बनाकर शब्दों को देती तीखी धार { दाँत पीसकर }कर देती बदज़ातों का बंटाधार कोई अलगाववाद की बात करे और कोई मांगे हमसे मेरा कश्मीर सीने पर बैठकर दल रहे मूंग छुपकर घाव कर रहे गम्भीर अन्न,जल ग्रहण करें इस धरती का रुबाई गायें पापी पाकिस्तान की हमारे प्रेम सौहार्द को मटियामेट कर जाल बुनें बैठकर गोद में हिंदुस्तान की कोई अल्ला-मुल्ला के नाम पर दे रहा समस्त ज...

'' अमर अब्दुल कलाम ''

  अमर अब्दुल कलाम  तेरी सच्ची देशभक्ति तिरे किरदार को सलाम सफ़र के नेक इरादों वाले तहे दिल से परनाम  । क़बा-ए-जिस्म छोड़ कर कब तस्वीर बन गया हर जुबां पे अपने नाम का वो कलमा गढ़ गया कली,फूल रो रहे बिछड़ तुझसे माहताब सितारे समां,फ़िजां सदायें दे रहीं तुझे अहबाब तुम्हारे । हिन्दू चाहिए ना हिन्दुस्तान को मुसलमां चाहिए तुझसा नेक दिल हिन्दोस्तां को रहनुमां चाहिए जिसे जाति,घर्म ,किसी मज़हब से ना हो राब्ता  तेरे रूपों में ढला तुझसा जुनूनी इन्सान चाहिए । जीस्त सरफ़रोश कर दिया जिसने देश के लिए उसके कितने शाहकार हुए ख़ुलूस,वेश के लिए जगी आँखों में जिसने ख़्वाब के जुग़नू जला दिए सपने वो नहीं जो देखो नींद में,ऐसे गुर बता दिए । जो थका,हारा,न रुका कभी,रहा ख़ाब को जीता कंकरीली,पथरीली,पगडंडियाँ सदा रहा चलता कभी बुझ न सकेगी जो उसने दिखाई है रौशनी उसकी दिखाई राह पर चलेगा ये मुल्क़ है यकीं । जिसकी ज़िंदगी का सरापा...

रिस्तों की परिधि में अपना ठिकाना

रिश्तों की परिधि में अपना ठिकाना  पढ़ना-लिखना किसी काम ना आया डिग्री बक्शा भीतर रखी सहेजकर ध्यान-ज्ञान हुशियारी सब धरे रह गए स्त्री धर्म का कड़ुवा मर्म ओढ़कर कभी-कभी विकल उसे एकाकीपन में निहार लेती फिर रख देती सहेजकर महकती कल्पना चहकती चेतना कभी-कभी कलम उठा लेती है और रच देती नवगीतों में अंतर्वेदना कोई ना जाने मेरे अक्षरों की दुनिया कौन निखारे मेरे मन्सूबों की कोठियां विचार,विवेक बुद्धि जैसी मीनारें भीतर ही भीतर दरक उठती हैं जब कोई करता गुणगान किसी का लहूलुहान हो जाती प्रतिभा की संजीवनी झनझना जातीं वजूद की दीवारें तौहिनिया श्मशाम के सन्नाटे जैसा चिर देती   ज़िंदगी शनैः-शनैः बीत रही काम के तले बस बनाते संवारते हुए घर,  बुहारती मन का विराट चबूतरा और निहारती निर्मल सपनों पर जमी गर्द और दूर-दूर तक देखती उन आयामों को जहाँ ना मैं ना मेरा वजूद ना मेरा नाम बस हिस्से में काम, मन में सबके लिए मंगल  कामना खटते रहने का नाम अपने हिस्से में रखना क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ ,इससे इतर मेरा...

ढलका सूरज भी आस्मा से निढाल हो

       ढलका सूरज भी आस्मा से निढाल हो               ( १ ) है कलमा,ग़ज़ल या ये शायर की रुबाई हांल-ए-दिल सुन तबियत सिहर जाएगी , जब भी देखेगी दरपन में अपना ही मुख भोली मासूम तस्वीर मेरी नज़र आएगी , चाहे जितनी जला ले तूं शम्मा इंतजार की रुत रुठी ना जाने रुठकर किधर जाएगी , कुछ कसर छोड़ी होती कर वफ़ा की क़दर क्या पता था नज़र बावफ़ा तेरी बदल जाएगी , कितने आँसू बहाये ज़ज्बे मेरे सितम से तेरे  इक दिन वही बात आईना रुबरु कराएगी हजारों मौजें दफ़न कर लीं मेरी खामोशियाँ  ऐ दोस्त तेरी ऑंखें भी शर्म से झुक जाएगी ,                    ( १ ) ये आजू-बाजू तेरे जो आज गुंचे खिले हैं बह मत रौ में किरन सी बिखर जाएगी , तेरी पलकों पे टुकड़े कुछ बुलंदी के जो क्यूँ दिखाती मुझे क्या वो मेरे घर आएंगी , बहेंगी मेरे भी परचम की निरंतर आँधियाँ मेरा रुतबा सुन सारी ख़ुमारी उत्तर जाएगी , ढलकता सूरज भी है आस...

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में  वह महफ़िल में आये सभी की तरह पर लगे क्यों नहीं अजनवी की तरह , नज़र क्या मिली कुछ घड़ी के लिए वीरां ज़िन्दगी में जैसे बहार आ गई जो ना उनने कहा कुछ ना मैंने कहा वही ज़ज्बात आँखों के द्वार आ गई, सांसें मस्त हो गईं डूबकर ख़्वाब में बिन पिए मय जैसी खुमार आ गई निखर सी गया मेरी दुनिया का रंग कोई सरगम सी जैसे झंकार आ गई , जिस छाया ने पागल किया था मुझे सामने साया साक्षात् साकार आ गई करती लाखों जतन ख़ुशी छुपती नहीं   ज़िक्र बन शायरी लबे-ए-पार आ गई , फासले मिट गए चन्द मुलाकात में करके ऐतबार दिल को करार आ गया  मिली जबसे नजर रौशनी मिल गई मोहब्बत भरा ख़त से इक़रार आ गया  ।                                        शैल सिंह

जालिम करवटें

जालिम करवटें  बेरहम करवटें जगा कर नींद से भोर का विभोर सपना चुरा ले गईं , चाँद से बात कर रही थी ख्वाब में पलकों पे तिरते परिंदे उड़ा ले गई , सूरज का साया दिखा छल किया रात सितारों भरी छीन दगा दे गईं  , रात भर नींद आई कहाँ याद में ,पर ख़ुश्बू से तर ये सुबह-ए-समां दे गईं ।                                  शैल सिंह

दर्प का रुख पर चश्मा लगाकर न बह

दर्प का रुख़ पर चश्मा लगाकर न बह अच्छा इन्सान बन डर ख़ुदा के ख़ौफ़ से  बेआवाज लाठी में भी होती हैं दुश्वारियां । कभी सामने रखकर अपने तुम आईना पूछ लेना क्या-क्या तुममें हैं ख़ामियाँ  दर्प का रुख़ पर चश्मा लगाकर ना बह हवा देखना,पहाड़ साधे है ख़ामोशियाँ । शक़्ल  बदलेगी जिस दिन अपना गुमां साथ अहबाब ना होंगे होंगी तन्हाईयाँ गुरुर इतना भी अच्छा नहीं रूप-रंग का दोस्त उम्र भर कहाँ साथ देतीं हैं रानाईयां ।   दम्भ,मद-अहं से लबरेज ये मिज़ाज लहज़े अपने आबो-ए-हवा में देखना तुम वीरानियाँ ये लाव-लश्कर तुम्हें कभी भी देंगे शिकस्त रोयेगी फ़ितरत पे याद कर मेरी मेहरबानियाँ अहबाब--लोगबाग,मित्र,समूह रानाईयां--सौन्दर्य , फ़ितरत --स्वभाव                                    शैल सिंह  

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों

एक इंसान जो रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है ,असफलताओं ने उसे तोड़कर रख दिया है दुनिया उसे नकारा कहती है ,लोग उसपे तंज कसते हैं,उम्र ढलती जा रही ,जिम्मेदारियां बढ़ती जा रही, सभी कोशिशें नाक़ाम ,उसकी अंतर्व्यथा मैंने अपनी कविता में पिरोया है ,आगे.... मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों  मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता लाचारियां भी बाज़ार में नहीं मिलतीं अगर मिलती किस्मत किसी मंडी में मूल्य अदा कर लाता उम्र नहीं ढलती , किसी की बेबसी पे मत हंसा किजिए मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता आप भी डरिये जरा वक़्त की मार से बुरा वक़्त कभी यूं बताकर नहीं आता , अक़्ल का चाहे जितना धनी हो कोई बिना तक़दीर के मन्जिल  नहीं पाया बीरबल अक्ल का क्षत्रपति होकर भी कभी बादशाहत का ताज़ नहीं पाया , जीने देतीं आशाएं ना तो मरने देतीं हैं जाने क्यों रूठा है मुझसे मुक़द्दर मेरा खुद के कंधे पे सर रख रो सकता नहीं न गले खुद को लगा दिल बहलता मेरा , बेहिसाब ढो रहा जिंदगी औरों के लिए जो मुझे चाहते ज़िंदगी बस उनके लिए सुबह-शाम वक़्त...

फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है

  फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है  डर सताती रही ख़ौफ़ की हर घडी फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है मन मतवाला गज सा हुआ जा रहा ख़ुशी चल एक विरहन के दर आई है , बिछ गए हर डगर पर पलक पांवड़े उनके आने की जबसे खबर आई है सरसराहट हवा की प्रिय आहट लगे उनके कदमों की ख़ुश्बू शहर आई है , महकने लगी आज़ हर दिशा हर गली  ज़िस्म का उनके चन्दन पवन लाई है सांसें स्वागत में लीन आज़ पागल हुईं कोई रोके ना पथ ज़िंदगी भवन आई है , उठे निष्पन्द वदन में भी अंगड़ाईयां सूनी अँखियों में अंजन संवर आई है, मन का हिरना कुलांचे भरने लगा है मन समंदर में हलचल लहर आई है , भोली आशाएं कबसे तृषित थीं सनम वही परिचित सा झोंका ज़िगर भाई है चाँद,तारों,सितारों की बारात का बिंब लगे नीले नभ से धरा पर उतर आई है , मुख मलिन दिखाता सदा रहा आइना उसी में सौ रंग ख़ुशी के नज़र आई है तार झंकृत नयन के इक झलक वास्ते पथ निरख हर बटोही के गुजर आई है , सज कलाई में सावन की हरी चूड़ियाँ बोल अधरों पर कजरी का भर लाई है कि...

दो क्षणिकाएँ

                            ( १ ) देखिये गौर से अब गरीबी नहीं कहीं देश में बहरूपियों की आदत गरीबी के चोले में है अलहदी बना दिया है बी. पी. एल. कार्ड ने उसपे आरक्षण की सौगात भी  झोली में है , असाध्य बीमारी हुआ है आरक्षण का कोढ़ बौद्धिकता का स्तर खतरे की टोली में है                         जिन्हें मिल जा रहा सब कुछ बैठे बिठाये उनमें आ गया नक्शा अहंकार बोली में है  ।                  ( २ )

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान

आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान रीढ़ की हड्डी तोड़ रही कर्ज़ का भारी बोझ  रंगदारी,दबंगई वसूली,की जमात घर रोज    अन्न अधमरे खेतों में औंधे बेजान निर्जीव देख दुर्गति फसलों की उड़ गई है नींद  तपे तवा सी धरती उगले सूरज रोज आग  कलप रहा है किसान हाथ लिए सल्फास , मौसम हुआ हठीला है निर्मम हुई हवाएं  सारी मेहनत खाक़ हुई हथेली आपदाएं  लुटा हुआ किसान निरख रहा आकाश  प्राण आधे रह गए ना भूख लगे ना प्यास , बदहाली दुर्दिन की समझे कौन व्यथाएं  अंतस में दफ़न हुई सूली लटकी वेदनाएं  जुल्म की पूरी दास्तान कह रही मरुभूमि  उजड़ा हुआ है माली,बुने सपने हुए यतीम , झूठी सांत्वना की पूँजी खोखली संवेदनाएं  फितूर साबित हो रहीं हैं जन-धन योजनाएं  मौन का ताला लटके ओहदों की शाख पर  मर्म पे लेप कौन लगाये पट्टी पड़ी आँख पर , अन्नदाता की कुंडली उल्कापात,ओले पानी  फिर से पुनर्जीवित हुई होरी की नई कहानी  आज भी कोई प्रेमचंद फिर से लिखे गोदान  धूल...

बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है

बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है  इक तासीर दिल को जब से मिली है ज़िन्दगी झूम कर मुस्कराने लगी है अमां का कासा मिला मिली ज़िन्दगी  गीत ख़ुशी के जुबां गुनगुनाने लगी है इनाम मुझे मेरी परस्तिश का मिला सांसों-सांसों में मस्ती समाने लगी है सप्तरंगों में दुनिया सज़ी ख़्वाबों की उन्नींदी रातें चांदनी में नहाने लगी है झनझनाने लगे सुप्त सभी तार मन के सुर टूटे तारों की वीणा सजाने लगी है मोतियों में हुईं आँसू की बूंदें तब्दील वैरागन उदासी नग़मा सुनाने लगी है खुलुश मिल गया है शाद दिल है मेरा फिर आरजूवें महफ़िल सजाने लगी हैं दर्दों में डूबी थी जो आज तक बन्दग़ी  आकर सपनों में ताबीर पिराने लगी है रातें सितारों से जगमग मेरी हो गईं हैं  हिलोरें किनारों से बातें करानें लगी हैं आकर वाहयातों देखो मेरी नाचीज़ पर बेपनाह मोहब्बत हर शै लुटाने लगी है ठहर सी गयी थी ज़िंदगी इक मोड़ पर अब वो रास्ता कई नये दिखाने लगी है तलाश में जिसकी बेजां हम दर-दर हुए आ मकसदें सामने सिर झुकाने लगी...

बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में

बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में तन्हाई के पहरों पर जब यादें देतीं हैं दस्तक बहती यादों की पुरवा में खो जाती हूँ हद तक, ओ अतीत की खूबसूरत तस्वीरों  मत आया करो मेरी सुप्त शिराओं में वक़्त के आईने में ढल सकी ना भटकती हूँ बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में । खुल जाता खुशनुमा पिटारा  बचपन की उन सँकरी गलियों का जहाँ न कोई आपाधापी,प्रतिस्पर्धा,ईर्ष्या होतीं  बस होती अतीत कीअच्छी बुरी झलकियाँ , गिल्ली डंडा,कंचे और बाग़ की अमियाँ , घनघनाती घंटी सुन कुल्फी,बरफ बेचने वाले की , दौड़ पड़ना चोरी से धान,गेहूँ से भरकर डालियाँ , यादें पुरानी जब चित्र उकेरतीं मन की दरकती दीवारों पर , फिर तो जिवंत हो उठतीं बीते दौर की कितनी बातें , दौड़ती भागती जिंदगी की मीनारों पर , यादें नहीं देखतीं वक्त मुहूर्त, संरक्षित रखतीं यादों के सन्दूक में सारे सूत्र , डायरी के पन्नों पर लिखे इबारत, पत्रों की पोटली,कविताओं की कच्ची कड़ियाँ, सहेजे हुए फोटोग्राफ के सभी पुलिंदे  जो भारी पड़ते आज के फेस बुक,जीमेल चैट पर  भावों की भंग...

ग़ज़ल

       ग़ज़ल  मेरे ख़्वाबों में आना दबे पांव तुम चराग़-ए-वफा बुझ ना जाए कहीं झिलमिला रहे लम्हें हंसीं यादों के लम्हा ये तन्हा गुजर ना जाए कहीं अश्क़ों से गीली पलक की जमीं है मोहब्बत में हम मिट ना जायें कहीं माना मजबूर तूं पर मोहब्बत नहीं अहदो-पैमान ही रह ना जाए कहीं चांदनी शब में ढूंढतीं हैं निगाहें तुझे वीरां मुंडेरों टिकी रह ना जाएं कहीं नींद से रहती बोझिल मगर जागती दर से आहट वो मुड़ ना जाए कहीं । अहदो-पैमान--वादे कसमें                        शैल सिंह

ओ बेवफ़ा

       ओ बेवफ़ा मेरी वफ़ा का सिला क्या ,तूने दिया वो बेवफ़ा अच्छी निभाई यारी ,संग यार के वो बेवफ़ा, पूछते सभी सवाल मुझसे अनुत्तरित जुबां है बदनीयत पे हैरां हूँ मैं ,वो इकरारे रुत कहाँ है वो इकरारे रुत कहाँ है रुसवा किया है तुमने ख़यालात को वो बेवफ़ा , जिस तरह से रेजा-रेजा मेरी अर्से-वफा हुई है तूं भी रोये खूँ के आँसू अना घायल मेरी हुई है अना घायल मेरी हुई है हो ज़न्नत मुझे नसीब तुझे दोज़ख़ वो बेवफा , चकाचौंध दौलतों की तूने गिरवी ईमान रखा बड़ी सादगी से मेरी शराफत पर अज़ाब रखा शराफत पर अज़ाब रखा इस गुनाह की तुझे खुद ख़ुदा सजा दे वो बेवफा दिखाया नकली चेहरा ऐतबार का कतल कर फूलों से ज़ख्म खायी काँटों से बच के चल कर काँटों से बच के चल कर    तेरा आशियां जले मेरा घर रौशन हो वो बेवफा ।                                               ...

'' किसानों की बेबसी ''

किसानों की बेबसी  क्यों बेमौसम बरस कर मेघा   तूने खेतों मैदानों पर क़हर बरपाई बेवक़्त कर ओला वृष्टि की चौपट   कृषकों के परिश्रम की हाय कमाई , क्यों अकड़ में अन्धा हुआ रे मेघ तूं मुर्दा हसरतों पर ऑंखें डबडबाईं क्यों इतना प्रमत्त हुआ जा बरस वहाँ जहाँ की बंजर धरा में फटी बिवाई , फसलें ही पूंजी थीं आधार स्वप्नों की क्यूँ ना तेरी आत्मा,क्षति से कसमसाई बेटी के हाथों की हल्दी थी जिसके बूते उसी बल को तोड़ तूने किया धराशाई , गले फसरी लगाने को कर दिया विवश कहाँ गई तेरी भलमनसाहत औ भलाई झमाझम बरसकर हुआ संवेदनाविहीन     कैसे क़र्ज़ा चुकायेंगे तबाह कृषक भाई । गहने गिरवी,घर बंधक,मार उधारी की  दीन दशाहीन देख जरा शर्म नहीं आई अनहद बरस तूने रंक,फकीर बना दिया   देख दुर्दशा अन्न की ओ मक्कार कसाई ।

कश्मीर पर कविता। " तूं ख़ूबसूरत बाग़ हिंदोस्तां बागवां तुम्हारा "

कश्मीर पर कविता ऐ कश्मीर तेरी वादियों में ज़न्नत का नूर है अखण्ड भारत का सरताज तूं कोहिनूर है , ग़र ये वतन है मेरा तो तूं जान है वतन की ग़र ये वदन है मेरा तो तूं प्राण है वदन की ग़ैर की निग़ाह से सच हमने कभी न देखा ग़र कहीं है स्वर्ग तो तेरी भू पे है गगन की , ग़र तुझसे बिछड़ गए तो जी के क्या करेंगे साथ-साथ हम रहेंगे संग जिएंगे और मरेंगे कभी विलग की हमने तो स्वप्न में ना सोचा बिन तेरे अखंडता की कैसे हर्षा भला करेंगे , वो फूल भी क्या फूल जो चमन में ना खिले वो फूल शूल सा लगे जो सहरा से जा मिले तूं ख़ूबसूरत बाग़ है यह देश बागवां तुम्हारा उर प्रेम का अंकुर उगा हम गले से आ मिलें।                                      शैल सिंह

देवी उपाधि नहीं मन भाती

देवी उपाधि नहीं मन भाती जब-जब होती हूँ तनहा  काटे कटता नहीं जब लमहा तब-तब कलम सखी बनकर शब्दों का जामा जाती पेहना  । मेरे अनुरागी मानस पर जब वैराग औ राग उफनते हैं आँखों के आँसू स्याही बनकर अंतर का दर्द उगलते हैं । नारी शब्द से नफ़रत होती है अबला नाम से होती है घृना बंधन पायल,बिंदिया,कंगन ताक़त इनसे होती बौना । त्याग,तपस्या,ममता की मूरत देवी उपाधि नहीं मन भाती वात्सल्य की मोहरा बन नारी  बैरी जग से छली है जाती । तुझे दुवा दें या करें  शुक्रिया अदा बता ऐ अपराधी,अन्यायी ख़ुदा आँचल में दूध और आँख में पानी क्यों उसकी ही लिखी ऐसी बदा । बाँहें पालना अङ्क सुखों की शैय्या जिसकी गोदी में सुखद बसेरा दिन-रात जली जो दीपशिखा सी क्यों उसके अंतस में गहन अँधेरा ।                                               शैल सिंह

जिन अधरों ने उनको पुचकारा

जिन अधरों ने उनको पुचकारा वज्र की छाती वाली धरती माँ सी औरत कितनी है बदक़िस्मत हाय  मर्दों के हाथ का मात्र खिलौना बस  , जिस माँ ने जनकर ऐ मर्द तुझे इक मर्द होने का है नाम दिया उसी का मान सम्मान मसलकर  तुमने सरेआम है बदनाम किया , उस पुज्यनिया की लूट आबरू  दर्पित हो तूने अभिमान किया चिथड़े-चिथड़े कर अस्मत के उसे सरेबाज़ार निलाम किया , तूमने जान कोख़ में कन्या भ्रूण इक माँ को बेवश मजबूर किया कचरे का ढेर समझ निरीहा को बिन जने ही अस्तित्व चूर किया , घर का चिराग़ इक मर्द ही हो ताकि मर्द बने बेग़ैरत तुझसा माँ,बहन,बेटी की अस्मत लुटे चील,कौव्वा,गिद्ध बन तुझसा , बाप,बेटा,भाई,का फ़र्ज भूलाकर मर्द तुमने दानवता का रूप धरा तुमने मानवता को शर्मसार कर विकृत सोच से मन का कूप भरा  , ख़रीद-फ़रोख़्त में वही बिकी रे  नंगी शोभा बनी दर-दरबारों की संसार के लिए वह वस्तु हो जैसे भोग की साधन इज्ज़तदारों की, पीर ज़ज्ब कर हर ज़ुल्म सहे वो  हर ख़ता पर बस नाम उसी का मर्दों के सेज़ की कामुकता पर क्यूँ चिता सजे...

'' महिला दिवस पर ''

महिला दिवस पर  व्यवधानों से कर के दोस्ती दिक्कतों की परवाह ना की   तोड़ पांवों की बेड़ियां उनने  ऊँची हौसलों को उड़ान दी  , संघर्ष बन गई ताक़त उनकी  तय अंतरिक्ष की दूरी कर लीं   पाल-पोस ख़्वाबों को अपने   तराश मन्सूबों को निखार लीं , सशक्त कर भूमिकाओं को ख़ुद को इक नई पहचान दीं  तोड़कर मानकों की परिधियाँ कुचली मनोवृत्ति को संवार लीं , ख़ाहिश नहीं महिमामण्डन की कोई चाहत नहीं सहानुभूति की भभक उठीं सदियों की वेदनायें  उबलती सिसकियाँ जो दबी थीं , बेहतर समाज की वे भी भागीदार प्रगतिशील हुईं आज़ की नारियाँ परम्पराओं की तोड़ सींखचों को  प्रतिभावान हुईं हमारी भी बेटियाँ , जरुरत है समाज की सोच में संकीर्ण नजरिये में बदलाव की वरना विवश हो ले लेंगी हाथ में  ख़ुद निडर कमान विधान की ।                                        ...

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे ये वक्तव्य

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर मेरे यह वक्तव्य  माँ,बहन,बेटी,पत्नी,प्रेमिका का मत हममें बस फर्ज तलाशिये आन्तरिक ताक़त पहचानिये बस हमारा ज़ज्बा निखारिये।  क्यों हमारे लिए ही केवल  तय किये गए मानक क्यों हमारे लिए ही केवल  खींची गईं रेखाएँ  क्यों खुदा ने भी की बेईमानी लिंगभेद कर  मानक और पाबंदियाँ  दोनों लिङ्गों के लिए क्यों नहीं  क्योंकि ख़ुदा भी मर्द है हमें कमजोर पहलू की  स्वामिनी बनाकर क्यों ? पुरुष को हैवानियत और  दानवता का दर्प दिया  जब-जब दर्द मिला  मौला तेरे लिए बद्दुवा निकली  तुमने किया भेदभाव और  नारी मुखर हुई मजबूत होकर  अगर नारी सशक्त हुई है  अगर नारी क़ामयाब हुई है  अगर नारी ने अन्याय के ख़िलाफ़  आवाज़ उठाई है ,बेहूदे समाज से  यदि जंग लड़ी है ,तो खुद को जगाकर  भगवान उसमें तेरा क्या योगदान ये ज़ज्बा जागा है तो अन्याय के कारण  अगर नारी सुदृढ़ हुई है तो भेदभाव के कारण  तुमने तो हमें गाय और देवियों की उपाधि देकर ...

'' मेरी वफ़ा बदनाम हुई ''

ओ दोस्त बेवफ़ा  बेवफ़ाई का कलमा लिखा दोस्त तेरे लिए नज़ीर यही , हमें ना बहलाओ लोरी से बालक नादान नहीं हैं हम उद्भट विद्वान नहीं फिर भी इतना भी ज्ञान नहीं है कम , शतरंज की गोट बिछाकर नपुंसक चाल को दाद है दी इस गुमां में मत रहना दोस्त तेरे धूर्त विसात ने मात है दी , बड़ी बेहया से मेरी अना को तूने दर्द की जो सौगात है दी तुझे तेरे किये की मिले सजा बददुवा तुझे दगाबाज़ जो की , ख़ुदा क्या बख़्शेगा तुझे कभी चतुर चाल पड़ेगी तुझपे भारी मेरे नये उड़ानों को पंख लगेंगे  मुबारक तुम्हें तुम्हारी ग़द्दारी , तूमने ऐतबार का ख़ून किया और मेरी वफा बदनाम हुई ईमान तेरा रोये खून के आँसू मेरी तल्ख़ जुबां अब आम हुई .                                     शैल सिंह

'' ख़ुमार फागुन का ''

ख़ुमार फागुन का अँखिया निहारे पन्थ करती निहोरा कंत पुरवा लगे अनन्त आ जा परदेशी कंत ,   मन पर चढ़ गया रंग फागुन का  तन रंग गया वसन्ती रंग सराबोर भींजे रोज चुनरिया हर रंग में चोलिया अंग , बदला मौसम का ढंग पुरवा लगे अनन्त काहे बने हो संत आ जा परदेशी कंत , मंद-मंद बहे पछुवा रसीली गुलाबी सिहरन भरे उमंग ग़जब मारे पतझर मुस्की गुईंया चौपड़ खेले बहार के संग , मधुमासी पी के भंग पुरवा लगे अनन्त काहे बने हो संत आ जा परदेशी कंत , पीत वसन में गहबर सरसों लगे नई नवेली नार कलियों ने घूँघट पट खोला करके मोहक सिंगार पटार , रसिक मिज़ाज भृंग रसीली तितली के संग काहे बने हो संत आ जा परदेशी कंत , नरम भये तेवर पूस माघ के ठंडी शनैः-शनैः निष्पन्द नया कलेवर ले पाहुन आये सुस्त शिराओं में उठे तरंग , आ जा लगा के पंख पुरवा लगे अनन्त काहे बने हो संत  मोरे परदेशी कंत ।                            शैल सिंह

हमारे गाँव की होली

हमारे गाँव की होली  बदलते मौसम की तरह बदल गए सब रीत रे कहाँ वो फगुवा बैठकी कहाँ जोगिरा गीत रे , ढोल,मंजीरे,झाल थापों पर कहाँ अब हुरियारों की टोली झूमते,नाचते,गाते कबीरा कहाँ अब हम जैसे हमजोली , गली,मोहल्ले की भऊजाई खोल झरोखा ताक-झांक में नटखट देवरा कब गुजरेगा साँझ-सवेरे इसी फ़िराक़ में , डाल घूँघट मुख दौड़ें दुवारे मुट्ठी मा करिया रंग दबाय  बुरा ना मानो होली है कहि  बहुवें,बुढ़वों को देवर बनाय , कीचड़ सनी बाल्टी उँड़ेलें नेह से माथ लगा के रोली सारा रा रा होली है धुन पे करें चुटकी काट ठिठोली , भिनुसारे से ही भांग-ठंडई ओसारे,अंगना नाऊ,कंहार रगड़-रगड़ सिलबट्टे घिसें  सखी गा-गा  मस्त मल्हार , करूँ अपने ज़माने की बातें आज की नई पीढ़ी दे घघोट पश्चिमी सभ्यता निगली जैसे गमछा,धोती ,जनेऊ ,लंगोट , जब-तब यादें बहुत सताती घिर आती हैं आँखों में घटा रिश्तों में जो तब मिठास थी कहाँ अब वैसी रंगों में छटा , प्रीत के रंग में रंगे वो रिश्ते बदरंग होकर गए महुलाय वक़्त ने तेज़ी से रफ़्तार धरी इक्क्सवीं सदी गई सब खाय ।     ...

दस्तूर दुनिया का निभाना है ,

दस्तूर दुनिया का निभाना है दुनिया भर की दुवाएं देकर तुझे नए परिवेश सजाना है , बेटी छोड़ नगर नईहर का सुख वैभव छोड़ पीहर का नाज़ों पली मेरी राजदुलारी   प्रितम का संसार बसाना है , करना हिया से पराई लाडो  दुनिया का तो रीत पुराना है कर पाषाण कलेजा गुड़िया दस्तूर दुनिया का निभाना है , छोड़ के आँगन बाबुल का ममता का छोड़ के आँचल छोड़ तुझे वीरन का चऊरा    विरवा रिश्ता नया बनाना है , निमिया का छोड़ बसेरा तुम   सजन मुंडेर चहकना चिरई पिया के घर,आँखों की पुतरी डोली चढ़के विदा हो जाना है , तेरे यादों की बदली जान मेरी  उमड़-घुमड़ नयनों से बरसेंगी ऑंखें फुलवारी की ओ फुलवा तेरे दामन देख ख़ुशी भी हर्षेंगी ।                                      शैल सिंह

ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई

'' ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई ''                      [ १ ]      मेरी ख़ामोशियों से मत अंदाज़ लगा लेना कि हम भूल गए तुझे गुनहगार बता देना , बड़ी सादगी से ख़ंजर कर दिल के आर-पार हमनफ़स राब्ता तोड़ की नई राह अख़्तियार , तुझसे निज़ात पाकर ख़ुश हम भी कम नहीं वरना खाते ज़िन्दगी भर धोख़े कोई ग़म नहीं, फ़ितरत का दिखाया तूने है बेहतरीन नमूना फुर्सत में बैठकर ख़ुद को दिखा लेना आईना ,                                                 [ २ ] ज़मीर नीलाम कर शर्म न आई नामुराद कितनी हुई रूसवाई घात लगाकर तूने दिया है दोस्त ,धक्का विश्वास की सीढ़ी से अर्से की वेरही बाड़ तोड़ ,नई बाड़ लगाई स्वार्थ की सीढ़ी से , सम्मानों की पसलियाँ चूर-चूर कर ,ख़ूब मान बढ़ाया रसूखों से बेवफ़ाई का काँटा कैसे निकालूँ ,तेरे वेहयाई के ढींठ सुलूकों से , हम तो टिक...

और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा

और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा तन्हई की चादर ओढ़े  जब-जब होती हूँ तनहा शब्दों का सुन्दर वस्त्र धारकर मानस पटल पर हो जाता आच्छादित   कवि मन पर गुजरा लमहा , झट कलम हाथ में गह लेती हूँ भाव प्रवण बन जाती कविता बाँध के अहसासों का सेहरा कहीं अल्फ़ाज़ न धुँधले पड़ जाएं और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा , कविता की कड़ियों में गूँथ भर, लेती हूँ जीवन का ककहरा जी भर जी लेती जीवन अवसान तलक वरना कहाँ समझ सका कोई भी नर्म भावों का भाव सुनहरा , ज्ञान मेरा बस आत्मज्ञान बन सिमट कर ख़ुद में ही है ठहरा शौक़ शान संगीत बना लेखन बन गयी लेखनी सम्बल मेरी रिश्ते शिद्दत से निभा के गहरा , उम्र के दर पर छल ना जाये डर है कभी ये पूँजी भी और हो जाये धुप्प अँधेरा ख़ुदा इस वैशाखी को देना बरक्कत बल देना पोरों में आँखों में रौशनी लहरा ।                                      ...