गर्मी पर कविता
अंबर उगल रहा है आग झुलस रही है धरती सुलग रहे हैं सूरजदेव तपिश से देह दहकती , चिलचिलाती धूप में लपटें लू की गरम-गरम सूर्ख हो भानु तेवर दिखलाते होते नहीं नरम , सिसकें ताल,तड़ाग कण-कण तपे जगत का देख विरानी विकल हैं पनिहारिनें पनघट का , तरू के तन पे कड़ी धूप ने पीत वस्त्र पेन्हाये टप-टप चूवे पसीना देह से सर से पांव नहाये , ना कटे पहाड़ सा दिन,ना ढले है जल्दी साँझ ना कहीं हवा बतास,घर उगले भट्ठी सी आँच , जाने क्यों ऐंठे मेघराज जी कुपित हुए बैठे हैं सरसाते नहीं धरा की छाती खफ़ा हुए ऐसे हैं , एसी,कूलर,पंखा भी राहत देने में मजबूर हुए तन को तरावट देने वाले मंहगे हैं तरबूज़ हुए , तापमान बढ़ता जाता मानसून कब आयेगा बंजर भूमि के वक्षस्थल अंकुर कब उगायेगा , ऐसा दुष्कर भ्रमण हुआ छुट्टियाँ बीतीं बेकार गर्मी डाली विघ्न अवकाश में घर बैठे लाचार , कुदरत के सौन्दर्य से,जो हम खिलवाड़ किये बाग,विटप,वृक्ष काट,जंगल से छेड़छाड़ किये , प्रकृति दे रही उसका प्रतिफल मिज़ाज बदल तरसें गाछ के छांव को चलो करें आज पहल , फिर करें मिशन शुरू हम,नये पेड़ लगाने का प्रकृति देगी अ...