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" वक्त गुजरे न लौट के आएंगे कभी "

" वक्त गुजरे न लौट के आएंगे कभी " मुझे शिकवा है तेरी ख़ामोशियों से  बग़ावत न कर बैठे कहीं सब्र मेरा ऐसे तहज़ीब इख़्तियार कर पूछते   ढलकता क्यों है चश्म से अब्र मेरा , क्यों मेरी खुशियों से तुझे अदावत  कि करे मौन उपवास तक़रार ऐसे  तेरे हिस्से का लम्हा तनहा गुज़रता  किया बिसात से बहुत  प्यार तुझसे न दिखे दिल का दर्द न मेरी तड़प  अबोध शिशु सी मैं भरुं किलकारी बेंध शब्दों में भाव करूं वार्तालाप पढ़ ख़ामोशी तेरी भड़के चिन्गारी , होता नहीं बर्दाश्त चुप का सन्नाटा  मैं भी ओढ़ ली अग़र मौनी ओढ़नी फिर न कहना बात कभी क़द्र की   कह दूँगी मैं भी कहाँ फ़ुर्सत इतनी , तूफां आके चले जायेंगे ज़िन्दगी से वक़्त गुजरे न लौट के आएंगे कभी कभी अंतस की गहराई में ग़र डूबे  तो जज़्बात गिला  कर जायेंगे सभी । सर्वाधिकार सुरक्षित  शैल सिंह