" कलम से गुजारिश "
कलम से गुजारिश अनकहे भावों को शब्दों में उकेरकर प्रिये पोरों लिख दो आँसुओं में भींगोकर खेलने दो शब्दों से भावनाओं के उफ़ान को रख दो ज़ुबां ख़ामोशी की कागज़ों पे खोलकर । कैसे गुजरता है वक़्त तनहा बता दो बहकते अक्षरों को मोतियों सा सजा दो जिन क्यारियों में बोये कभी ख़्वाब हम हसीं मिली तन्हाईयों की तोहफ़े में दहकती सी जमीं । ख़ामोशियों,तन्हाईयों के बाज़ार में भीड़ में हजारों की निग़ाहें तुम्हें ढूंढ़तीं अहसासों की दुनियां में छाई बस वीरानियाँ कहना हर अजनवी से पता तेरा बावली पूछती । ज़िन्दगी के पन्नों के सारे ईबारत लिखो क़लम तुझे तो हासिल महारत दो पल के मोहब्बत में गुनाह कैसा था हुआ कि धड़कनों के ही साजो-सामां हो गये नदारद । जीने में ना मरने में तेरे इन्तज़ार में गुजारती हूँ कैसे शाम और रात का समां अभी तक हैं दिल में महफ़ूज़ जो निशानियां सहेज कर उसे हैं बैठे चैन और करार हम गवां । तुझे ही ज़िन्दगी ने बस तवज्ज़ो दिया बेफ़िकर हो मुझको तुमने ही तन्हा किया गुज़रे मौसमों का मंजर मेरी आँखों ...