शनिवार, 23 मई 2015

बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में

बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में


तन्हाई के पहरों पर जब यादें देतीं हैं दस्तक
बहती यादों की पुरवा में खो जाती हूँ हद तक,

ओ अतीत की खूबसूरत तस्वीरों 
मत आया करो मेरी सुप्त शिराओं में
वक़्त के आईने में ढल सकी ना
भटकती हूँ बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में ।

खुल जाता खुशनुमा पिटारा 
बचपन की उन सँकरी गलियों का
जहाँ न कोई आपाधापी,प्रतिस्पर्धा,ईर्ष्या होतीं 
बस होती अतीत कीअच्छी बुरी झलकियाँ ,
गिल्ली डंडा,कंचे और बाग़ की अमियाँ ,
घनघनाती घंटी सुन कुल्फी,बरफ बेचने वाले की ,
दौड़ पड़ना चोरी से धान,गेहूँ से भरकर डालियाँ ,

यादें पुरानी जब चित्र उकेरतीं मन की दरकती दीवारों पर ,
फिर तो जिवंत हो उठतीं बीते दौर की कितनी बातें ,
दौड़ती भागती जिंदगी की मीनारों पर ,
यादें नहीं देखतीं वक्त मुहूर्त,
संरक्षित रखतीं यादों के सन्दूक में सारे सूत्र ,
डायरी के पन्नों पर लिखे इबारत,
पत्रों की पोटली,कविताओं की कच्ची कड़ियाँ,

सहेजे हुए फोटोग्राफ के सभी पुलिंदे 
जो भारी पड़ते आज के फेस बुक,जीमेल चैट पर 
भावों की भंगिमा खो गई नई-नई तकनीकों की सैट पर
मासूमियत भरे दौर धराशाई हो गए 
ख़्वाहिशों के बड़े-बड़े महलों में दबकर
मुखर हो गयी वही पुरानी याद आज 
फिर ज़िंदगी के शो केस में सजकर
बन फूलों सी कोमल कलियाँ ,

छोटे शहर ,गाँव की पृष्ठभूमि से कभी जुदा 
नहीं होने देते यादों के ख़ुश्बू इत्र
कागज के टुकड़ों पर लिखे भूले बिसरे गीत 
वो पल सुहाने भूले नहीं चलचित्र
घर के पिछवाड़े बाग़ बगीचे की सैर,
नदी,पोखरा घाट नहाना धूल भरा वो पैर,
जामुन की दाग से रंगे लिबास,खेल-खेल में बैर,
हाथ में बाबा का मोटा डंडा  
लुका छिपी खेल की घड़ियाँ,

आज समाज के बंजर मरुभूमि में 
नहीं दिखाई देता वैसा छतनारा सा पेड़
जहाँ बैठ सुकून से लगे ठहाके,गपशप,
कभी ना पता चले गर्मी की छुट्टियां 
दिखें कहीं बकरियां भेंड़,
खुलकर आनन्द लेने के दिन लद गए ,
रह गए बसनिन्यानबे के फेर ,
पूर्वजों की धरोहरें कौन सहेजे ,
जने-जने के शहर-शहर में 
बंगले गाड़ीयों की लड़ियां ,

बन्ना बन्नी के गीत ना भूले ,
दादी,बाबा,चाचा,चाची की प्रीत ना भूले ,
वक्त की भीड़ में भूले खुद को 
पर परम्परा और रीत ना भूले ,
एकल परिवार से सारे रिश्ते गायब ,
निरा अकेलापन तन्हाई का दंश,
सारी जगहें रिक्त पड़ीं हैं जिसे नहीं 
भर सकते मोबाईल कम्प्यूटर के अंश,
आँखों सम्मुख फीकी-फीकी लगे,
अतीत के आगे ये पर्याप्त सामग्रियाँ ,

रीति रिवाज संस्कार हुए गुम 
नई पौध ने बदल दिया समाज ,
ये कैसा आगाज़ बिखरते परिवार की देख मलानत 
अब मौसम में भी नहीं बहती पहले सी बयार
नेह प्रेम के भावों में भी सच्ची नहीं फुहार,
सांय-सांय दोपहरी खेल ताश का 
नीम तले बैठें मिल यार ,
सामाजिक मुद्दों पर चर्चा कौन करे ,
सुख-दुःख की परवाह किसे ,
मन में गाँठ की झड़ियाँ ,

ओ अतीत की खूबसूरत तस्वीरों 
मत आया करो मेरी सुप्त शिराओं में
वक्त के आईने में ढल सकी ना 
भटकती हूँ बचपन की उन्हीं गुफ़ाओं में ।

                                                                                            शैल सिंह


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