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हरियाई लगे है मुरझाई लता द्वार की

हरियाई लगे है मुरझाई लता द्वार की कहां आया भटकता हुआ तूं अजनबी  हूर का दीदार करने हीर की इस गली । तेरी निग़ाहों ने ऐसा क़तल क्यों किया कि ज़िबह होते गए दिल के रुतबे मेरे हाथ खड़े कर दिए रसूखी प्रहरी सभी  टूटते गए इख़्तियार के सभी क़ब्ज़े मेरे । तुमने दीदा से दिल का हरफ़ पढ़ लिया नाम अपने वसीयत ज़िगर की लिखाई जादूई रंग भर दिया खाली कैनवास में कि हाथ मैंने मोहब्बत की मेंहदी रचाई । कोई अक़्स देखे न चश्म में महबूब की दुनिया से कटकर फ़र्लांग भरने लगी हूँ जमीं पर चांद गगन से उत्तर आया लगे तांत हसरतों के दिन-रात बुनने लगी हूँ । चुपके आके पवन कान कुछ कह गई हरी लगने लगी मुरझाई लता द्वार की भर लिया फाग का रंग ओढनी में सब छू रहा अम्बर चरन पूछ पता प्यार की । ज़माने की परवाह पीछा ना करती रहे तोड़ आई रिश्ते सभी पाषाणी नगर से किस्मत की लकीरों पे  दास्ताँ छोड़कर  अस्त सूरज के पहले चली आई घर से । चोरी के अब तक पड़े हैं जालिम निशां नकब  सीने में आँखों से तूने लगवाई जो देख वदन की उधे...