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फ़रवरी 22, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

'' मेरी वफ़ा बदनाम हुई ''

ओ दोस्त बेवफ़ा  बेवफ़ाई का कलमा लिखा दोस्त तेरे लिए नज़ीर यही , हमें ना बहलाओ लोरी से बालक नादान नहीं हैं हम उद्भट विद्वान नहीं फिर भी इतना भी ज्ञान नहीं है कम , शतरंज की गोट बिछाकर नपुंसक चाल को दाद है दी इस गुमां में मत रहना दोस्त तेरे धूर्त विसात ने मात है दी , बड़ी बेहया से मेरी अना को तूने दर्द की जो सौगात है दी तुझे तेरे किये की मिले सजा बददुवा तुझे दगाबाज़ जो की , ख़ुदा क्या बख़्शेगा तुझे कभी चतुर चाल पड़ेगी तुझपे भारी मेरे नये उड़ानों को पंख लगेंगे  मुबारक तुम्हें तुम्हारी ग़द्दारी , तूमने ऐतबार का ख़ून किया और मेरी वफा बदनाम हुई ईमान तेरा रोये खून के आँसू मेरी तल्ख़ जुबां अब आम हुई .                                     शैल सिंह

'' ख़ुमार फागुन का ''

ख़ुमार फागुन का अँखिया निहारे पन्थ करती निहोरा कंत पुरवा लगे अनन्त आ जा परदेशी कंत ,   मन पर चढ़ गया रंग फागुन का  तन रंग गया वसन्ती रंग सराबोर भींजे रोज चुनरिया हर रंग में चोलिया अंग , बदला मौसम का ढंग पुरवा लगे अनन्त काहे बने हो संत आ जा परदेशी कंत , मंद-मंद बहे पछुवा रसीली गुलाबी सिहरन भरे उमंग ग़जब मारे पतझर मुस्की गुईंया चौपड़ खेले बहार के संग , मधुमासी पी के भंग पुरवा लगे अनन्त काहे बने हो संत आ जा परदेशी कंत , पीत वसन में गहबर सरसों लगे नई नवेली नार कलियों ने घूँघट पट खोला करके मोहक सिंगार पटार , रसिक मिज़ाज भृंग रसीली तितली के संग काहे बने हो संत आ जा परदेशी कंत , नरम भये तेवर पूस माघ के ठंडी शनैः-शनैः निष्पन्द नया कलेवर ले पाहुन आये सुस्त शिराओं में उठे तरंग , आ जा लगा के पंख पुरवा लगे अनन्त काहे बने हो संत  मोरे परदेशी कंत ।                            शैल सिंह

हमारे गाँव की होली

हमारे गाँव की होली  बदलते मौसम की तरह बदल गए सब रीत रे कहाँ वो फगुवा बैठकी कहाँ जोगिरा गीत रे , ढोल,मंजीरे,झाल थापों पर कहाँ अब हुरियारों की टोली झूमते,नाचते,गाते कबीरा कहाँ अब हम जैसे हमजोली , गली,मोहल्ले की भऊजाई खोल झरोखा ताक-झांक में नटखट देवरा कब गुजरेगा साँझ-सवेरे इसी फ़िराक़ में , डाल घूँघट मुख दौड़ें दुवारे मुट्ठी मा करिया रंग दबाय  बुरा ना मानो होली है कहि  बहुवें,बुढ़वों को देवर बनाय , कीचड़ सनी बाल्टी उँड़ेलें नेह से माथ लगा के रोली सारा रा रा होली है धुन पे करें चुटकी काट ठिठोली , भिनुसारे से ही भांग-ठंडई ओसारे,अंगना नाऊ,कंहार रगड़-रगड़ सिलबट्टे घिसें  सखी गा-गा  मस्त मल्हार , करूँ अपने ज़माने की बातें आज की नई पीढ़ी दे घघोट पश्चिमी सभ्यता निगली जैसे गमछा,धोती ,जनेऊ ,लंगोट , जब-तब यादें बहुत सताती घिर आती हैं आँखों में घटा रिश्तों में जो तब मिठास थी कहाँ अब वैसी रंगों में छटा , प्रीत के रंग में रंगे वो रिश्ते बदरंग होकर गए महुलाय वक़्त ने तेज़ी से रफ़्तार धरी इक्क्सवीं सदी गई सब खाय ।     ...

दस्तूर दुनिया का निभाना है ,

दस्तूर दुनिया का निभाना है दुनिया भर की दुवाएं देकर तुझे नए परिवेश सजाना है , बेटी छोड़ नगर नईहर का सुख वैभव छोड़ पीहर का नाज़ों पली मेरी राजदुलारी   प्रितम का संसार बसाना है , करना हिया से पराई लाडो  दुनिया का तो रीत पुराना है कर पाषाण कलेजा गुड़िया दस्तूर दुनिया का निभाना है , छोड़ के आँगन बाबुल का ममता का छोड़ के आँचल छोड़ तुझे वीरन का चऊरा    विरवा रिश्ता नया बनाना है , निमिया का छोड़ बसेरा तुम   सजन मुंडेर चहकना चिरई पिया के घर,आँखों की पुतरी डोली चढ़के विदा हो जाना है , तेरे यादों की बदली जान मेरी  उमड़-घुमड़ नयनों से बरसेंगी ऑंखें फुलवारी की ओ फुलवा तेरे दामन देख ख़ुशी भी हर्षेंगी ।                                      शैल सिंह