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जून 15, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ

     कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ  झंकृत होतीं जब भाव तरंगें रेती फूल हृदय के उगते  विकृत हो जाती नैसर्गिकता जब निर्मम हो तुम हँसते , छोटी-छोटी अभिलाषायें हर ऱोज उमग कर मुर्झातीं   मौन भाषा की गहराई क्या सचमुच समझ नहीं आती  क्यूँ मृदुल भावों की ढींठ बन तुम नित सुलगाते छाती ,               स्नेही बाँहों का हार लिए आओगे हर रात गुजर जाए मनमोहक पुष्प खिला जाएं कितनी भोली हैं आशाएं क्यों अधरों पर नहीं ला पायें कुछ ऐसी भी हैं पीड़ाएँ , मन का सिंगार समझते,हृदय के तार स्वयं जुड़ जाते अनजान बने तुम खूब पता,गए वक्त नहीं फिर आते काश अंतरंग बातें व्यथित तुमसे मुक्त कंठ कह पाते , संवाद बिना भी मच रहा बवंडर मन की खाई गहराई कुछ तो हो नवीन अलग-विलग  दिल में गूंजे शहनाई   जीवन की संध्या बेला सम्बन्धों में लायें नूतन रअनाई । रअनाई--कोमलता,सुंदरता                       ...

कल्पना का रूप

    कल्पना  का  रूप  तुझे रिझाने मन्दिर आई पूजा अर्चन थाल सजाई हे निष्ठुर भगवान सुनो मेरी रीति गागर भर दो । कैनवास के कोरे फ़लक पर कल्पना ने इक चित्र उकेरा है मन के भावों पर अनुरंग चढ़ा तूलिका ने बहु रंग बिखेरा है । जिस मंजिल की तलाश मुझे ऐ  राह  ले  चल  उस   तलक कब  तक  भटकना  है लिखा किस  लोक  में  है मेरा जहाँ मन हर पल है सपना बुन रहा कहीं ठहरा नहीं है अब तलक । इक आयाम  चाहत को मिले साकार  कल्पना  का  रूप हो गुलशन  में  मेरी ज़िंदगी के हर रंग ,छाँह ,खिली धूप हो तूं तो मन की सब है जानता ऐ रब दे मन का मेरे भूप हो ।                                    शैल सिंह 

ऊफ़ ये कैसी गर्मी मुहाल हुआ जीना

ऊफ़ ये कैसी गर्मी मुहाल हुआ जीना तपा रही दुपहरी तर-तर चुवे पसीना जेठ का महीना हाय जेठ का महीना  बेचैन धरती चातक का चटके सीना  तरास नाहिं बूझे काँहे बदरा हठी कमीना ।  बिवाई सी फटी दरार सूखा कोना-कोना  तनिक रईन ना डोले जी छत पर कैसे सोना  यहाँ-वहाँ कैसे कोई भी दुलहिन नवयौवना  ख़राब ज़माना खुले में सोए बिछा बिछौना ।  मग़रूर मेघा उमड़-घुमड़कर आये जाये  दो बूँद सलिल के लिए हाय जिया तरसाये  मुश्किल में किसान हाथ मल-मल कसमसाये ऊसर,परती हुआ खेत कैसे अन्न प्रचुर उगाये ।  निर्मोही बदरा की ऊफ़ बेदर्द सी चितवन  घेरि -घेरि काली घटा उगले जैसे अदहन  ओ रे निर्धन नभ,पनघट से झर निर्झर-निर्झर   हरष उठे त्रस्त जीवन सरस उठे जग उपवन ।                                               शैल सिंह