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मई 1, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

देशद्रोहियों की मति गई है मारी का

देशद्रोहियों की मति गई है मारी का जहाँ सुबह होती अजान से कान गूंजे हनुमान चालीसा जिस धरती पे राम-रहीम बसते गुरु गोविन्द और ईसा जहाँ हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई में भाई-भाई का नाता जहाँ की पवित्र आयतें बाईबिल ग्रन्थ कुरान और गीता , हम करते हैं नाज़ जिस वतन की नीर,समीर माटी पर हम करते हैं नाज़ जिस चमन की खुशबूदार घाटी पर जिसकी आन वास्ते शहीद हुए न जाने कितने नौजवाँ उस मुल्क़ के मुखालफ़त गद्दार हुए बदजात बद्जुबां , पतित पावनी धरा पर भूचाल मचाया उपद्रवी तत्वों ने अभिव्यक्ति की आज़ादी में पाजी अक़्ल लगी सनकने भारत के टुकड़े होंगे कहते हैं कश्मीर नहीं भारत का बेलगाम नामुराद देशद्रोहियों की मति गई है मारी का ,                                               इक दिन बिखर जायेंगे अभिव्यक्ति की आज़ादी वाले दहर में देखना टूटे हुए जंजीर की कड़ियों की तरह उठेंगी दश्त में घृणा भरी निग़ाहें ब...

आतंक की घृणित विभीषिका पर मेरा अंतर्द्वंद

आतंक की घृणित विभीषिका पर मेरा अंतर्द्वंद  नित देख जगत का आहत दर्पण पन्नों पर मन का दर्द उगलतीं हूँ अब जाने कब होगा जग प्रफुल्ल  सोच कविता में मर्म विलखती हूँ , काश करतीं व्यथित शोहदों को आतंक की चरम घृणित क्रीड़ाएं कोई मुक्तिदूत बनकर आ जाता हर लेता जग की क्रन्दित पीड़ाएँ , कभी ग़र घोर निराशा के क्षण में कहीं से छुप झांक पुरनिमा जाती पुनः अगले पल कुछ घट जाता रे जैसे ही सुख भर पलकें झपकाती , जब-जब हँस उषा की लाली देखा कलह की सुख पर चल गई आरी फिर काली निशा हो गई डरावनी सुनकर कुत्सित षड्यंत्र की क्यारी , भाटे जैसी उठती हिलोर हृदय में व्यूह तोड़  लहरों में बह जाने को जग का दुर्दिन हश्र देख मचलता विवश कंगन कटार बन जाने को , रुख रहेगा अलग-थलग भावों का  ग़र आपस में ही लड़ते रह जायेंगे जो भी आदि बची जी दीन दशा में विष सुधा विद्वेष कलुष कर जायेंगे , सुरभित जीवन में मची कोलाहल सर्वत्र चीत्कार रहीं गलियाँ-गलियाँ भय ...