प्रियतम आस के दीप जला थक गये कजरारे नैना
कब आओगे पंथ निहारूं रोज गुलों से सेज संवारूं
देखूं चहुं दिस हो अधीर बेमन से आंगन गेह बुहारूं ,
बनो ना इतने निष्ठुर तुम कलप रही होके तुमसे दूर
हंसना,सोना,खाना भूल गयी मुरझाये मुखड़े के नूर
अरमानों के कंपित अधरों पर कितने गीत सजाकर
रिमझिम बीता सावन पिउ मिलन की आस लगाकर ,
दग्ध हृदय है तेरे वियोग में शीतलता आ करो प्रदान
प्रतिक्षा में सुलगे अन्तर्मन कैसे धुआं दिखे आसमान
इक पल चित को धीर नहीं भींगी पलकों से पूछो आ
व्याकुल रहता बावरा मन पीर अन्तहीन तो देखो आ
जोगन बनकर ताक रही मग पगली कहता मोहे जग
चंचल यौवन की मधुऋतु बेला में छोड़ गये मोहे ठग
कैसे चन्द शब्दों में व्यक्त करूं अकथ हृदय की पीर
पाती लिखती मसि बना नीर को निरख तेरी तस्वीर
इक दूजे के पूरक हम बिन तेरे क्या है अस्तित्व मेरा
रह-रह टीस उठे हिय,कंठ रूद्ध,अश्रु करें श्रृंगार मेरा
अनुराग से सना पढ़ मौन वेदना मेरी छवि बना लेना
नेह से ना करना निर्वासित इस मधुमास में आ जाना ।
गुलों----फूल ,
गेह---घर ,
मसि---स्याही,इंक
शैल सिंह
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