अंतर्जातीय विवाह करने वाली बेटी पर
संस्कारी पिता के दर्द को बयां करती रचना
नेह इक बाप का यूं ठुकरा कर तुम
घर बसा ली किसी बेग़ैरत के संग
तूं भी मेरी तरह हर-पल तड़पती रहे
जी रहा जिस तरह मैं ज़िल्लत के संग ।
जिस बाग़ की थी नाज़ुक़ कली तूं कभी
फूल बनने तलक जिस आँचल में थी
उसी आँचल का ईक-ईक रेशा उघाड़
कर गई नग्न खेली जिस आँगन में थी ।
डग भरने से लेकर यौनावस्था तलक
घर की इज्जत बनाकर रखा किस तरह
तुम तो शोहरत की भूखी थीं पा वो गईं
तोड़ सोने का पिंजरा उड़ीं किस तरह ।
सहानुभूति की जो निबौरियां चुन रही
धम्म से इक दिन गिरोगी महा ग़र्त में
श्राप देती कलपती माँ सीना धुन रही ।
क्यूं लगीं अंकुशों की पांव में बेड़ियां
तुम भी जानती तुम्हें सब बखूबी पता
बैठ मंचों पर तूं घड़ियाली आँसू बहा
सोच बदलो पापा,कहती करके ख़ता ।
चाँद सूरज को मिलते क्या देखा कभी
पत्थरों पर कभी दूब उगते देखा क्या
कृत्य पे ऐसे जश्न मनते क्या देखा कभी ।
कर दी मिट्टी पलीद कुल,खानदान की
सदियों तक हर जुबां की दास्ताँ बनेगी
की ना परवाह कलंकिनी तूं अंज़ाम की ।
इस दु:साहस की मिले तुझे ऐसी सजा
ज्ञान देने वालों के घर भी हों कुलटा पैदा
दईया युवा पीढ़ी को जाने है क्या हो गया
प्रेम अँधा हुआ पानी आँखों का मर गया ।
शैल सिंह
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