बादल पर कविता " ऐ नभ के कारे बादलों क्यूँ भाव हो खाते "
अरे बादलों बरसना है तो बरस जाओ ना ऐसे रोज-रोज घन घेर कर डराते हो क्यों हवाओं का झकोरा दामिनी की दहाड़ से गुजरे लम्हों की सुध फिर दिलाते हो क्यों । बीते सुहाने रूत भींगा-भींगा सा एहसास सर्द-सर्द फ़िज़ाएं धुंआं-धुंआं सा आकाश सूर्यास्त का तमस झींसियों से भिंगो देना फिर यादों के आवर्त में आकंठ डुबो देना । कहीं ऋतु ना बीत जाये आवारा सा फिरे मिटे भू की तिश्नगी बरसा फुहारा सा नीरें ऐ नभ के कारे बादलों क्यूँ भाव हो खाते राहत के सांस दो उमस से क्यूँ हो सताते । तूं ख़ुद तो फिरे चन्दा को आगोश में लिये रोयें किसी की ख़ाहिशें ख़ामोश लब सीये कोई रोज भींगता भीतर की वृष्टि में मगन दे सलिल की सौगात धरा हो जाये दुल्हन । भृकुटी तनी तेवर मेघ नज़ाक़त किसलिए ताने घूँघट घटा के इतने उन्मत्त किसलिए दरकी धरती सूखी नदियां व्याकुल परिन्दे दग्ध हृदय विरहणियों के बरसा तरल बूँदें । तड़-तड़ा गड़क-तड़क अंतर्ध्यान हो जाते गड़-गड़ा ग़ुर्रा के नीला आसमान हो जाते बरसो झमाझम सावन मनभावन हो जाये चहुँ दिशाएं नन्ही बूंदों से सुहावन हो जाये । सर्वाधिकार सुरक्षित शैल सिंह