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मेघ से उलाहना

  मेघ से उलाहना उमड़-घुमड़ घनघोर घटाएं  नख़रे दिखा-दिखा लौट जाती हैं  चाहतों का घोर उल्लंघन कर जी भर-भर मन को जलाती हैं  , देखें कब बूंदों के सोंधेपन से भरेंगे नथुने,घटा बोध कराती है कब रिमझिम बारिश की फुहारों से सुखी धरती की कोख भींगाती है , ना जाने कब अँधेरों में टिप-टुप कहीं-कहीं बूंदा-बांदी कर जाती है दूसरे ही पल तैश में आकर ऊष्मा पुनः अपना रौब दिखाती है , लगे हण्टर सी तपन सूर्य की रेत सी वसुंधरा तड़फड़ाती है नभ पर लगी सबकी है टकटकी जाने ये किस ऐंठन में भाव खाती है , बेहाल हैं जीव-जंतु,वन्य प्राणी देखें कब ताज़पोशी वर्षा की कराती है जरूरत के मुताबिक कभी भी ये  नहीं नाशपीटी रंग में आती है , कहीं बाढ़ का क़हर कहीं मार सूखे की कभी-कभी बेढब ये व्यवहार दिखाती है कभी अनहद बरस-बरस सब कुछ  मनबढ़ सैलाबों में बहा ले जाती है , बरस सरसा जाओ सीना धरती का  मिटाओ पल में ऊष्मा क्यों सताती हो बनती क्यों कोपभाजन हर जुबान की   कड़क-कड़क कर अवसाद भर जाती हो , सुनो गुहार म...

ग़ज़ल " "कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की

कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की  ये कैसा नशा प्यार का के बेवफाई के शहर में टूटी उम्मीदें हैं बरकरार आज भी भले बदल गए वो आते-जाते मौसम की तरह इन आँखों में है इंतजार आज भी कभी तो ढहेंगी दरो दीवार गलतफहमियों की आस में दिल है बेक़रार आज भी  दरमियां रिश्तों के खिले फूल से अल्फ़ाज़ जो कानों में ताज़ी है झंकार आज भी बहा ना ले आँखों की दरिया का सैलाब कहीं फ़िक्र यादों का है अम्बार आज भी कैसे समझाऊँ ख़्वाबों,साज़िशों के बाजार में दिल हो रहा है शिकार आज भी ये कैसा फलसफ़ा ज़िंदगी,मोहब्बत-दोस्ती में   दर्द का मिले है गुब्बार आज भी |                                     शैल सिंह