सोमवार, 17 मई 2021

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता पर कविता "

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता "



ऐसी विभीषिका से  वबाल मचाई हो कॅरोना
कैसी विश्वव्यापी व्याधि तूँ दुसाध्य सांस लेना ।

किन गुनाहों की मिल रही सज़ा ज़िन्दगी को
कि अब ज़िन्दगी ही दे रही दग़ा ज़िन्दगी को
हवाएं भी खफ़ा हो ज़ुल्म ढा रहीं हैं सांसों पर 
एवं ख़तरनाक हो क़हर ढा रहीं हैं आँखों पर ।

जाने कब तक चलेगा मौत का ये सिलसिला
तुम्हारी बेग़ैरत करतूत से ज़िन्दगी को गिला
दुनिया सहम गई है देख जनाज़ों का कारवां 
शंकित शवों की संख्या से मरघट भी पशेमाँ ।

हो वैरी का जैविक वार या प्रकृति हुई ख़फ़ा
कि महाप्रलय पे तुले धर्मराज कर रहे ज़फ़ा
विस्मित हूँ सांसों के ,अकस्मात् थम जाने से
सृष्टि बेबस निरूपाय उचित उपचार पाने से ।

जो किया कल के लिये संचय न काम आया
कांपें स्वजन भी छूने से ऐसी अस्वस्थ काया
कांधे भी मुनासिब नहीं बेसहारा सी मृत देह
थरथराती देख रूह औषधालयों पे भी संदेह ।

लिपट कर भी ना रो पाएं ऐसे छटपटाते प्राण
बेअसर उपाय सारे जो भी सभी ने किये त्राण
चाँदी हो गई हरामख़ोरों की इस महामारी में
ज़िन्दगी,धन से गये मज़लूम दुर्बल लाचारी में ।

पशेमाँ--शर्मसार,लज्जित
त्राण--रक्षा,बचाव

सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह

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