गुरुवार, 15 अक्टूबर 2015

ओ परदेशी

          ओ परदेशी 


   क्या बतलायें शहर की कोई भी चीज
   अपने प्यारे न्यारे गाँव सी नहीं लगती
   चाहे जितना खायें पिज्जा,बर्गर,नूडल
   माँ के व्यंजन के स्वाद सी नहीं लगतीं ,

कच्ची गलियाँ अम्मा-बापू रखना याद घराना
कैसे फड़फड़ायें देख परिंदे वीरां आशियाना ,

शहर को कूच करने वाले गाँव के मुशाफ़िर
गाँवों की पगडण्डियां हृदय में बसाये रखना
हिफाज़त से बुजुर्गों के नसीहत की पूँजी भी
शिद्दत से सहेज कर आँखों में सजाये रखना ,

निशानियाँ मत करना जाते वक़्त की विस्मृत 
उमड़ा रेला परिजनों का आँसू भरा ख़जाना 
कहीं भूल ना जाना परदेश की आबोहवा में
आँगने का छायादार नीम का दरख़्त पुराना ,

कभी ग़र याद में तड़पे दिल लड़कपन वाला
वनवास छोड़ दहलीज़ अपने लौट आ जाना 
रौशन हो जाएँगी फिर बेनूर हुयी बूढ़ी आँखें 
रौनक पनघट पर भी जो बिन तेरे सूना-सूना ।

                                          शैल सिंह





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