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मैं नेह की शीतल समीर हूँ

मैं नेह की शीतल समीर हूँ मैं नदी हूँ मन की नदी,  बहुत कुछ अपने अतल अंतर में समेटे हुए,  मुझमें भी समुद्र सी लहरें हैं उफान और तरंगें हैं, मैं समन्दर की तरह भीतर के अबोध रेत को , किनारों पर उगल ऊंची-ऊंची छलांगें नहीं लगाती।  मैं नदी हूँ  मन की नदी शान्त,चिर स्निग्ध , अपने विस्तार को, मन के परिसर में , चुप्पी की चादर में ओढ़ाकर , बाह्य जगत से दूर रखती हूँ। जब कोई शरारती कंकड़ , मेरी सतह से छेड़खानी करता है , मैं एक बुलबुला छोड़ उस परिदृश्य को , जज्ब कर लेती हूँ ,अपने मन के भूगर्भ में , पर उस शरारती तत्व को पथरी के रुप में, वही पथरी जब अतिशय बड़ी हो , असहनीय दर्द का आकार लेती है , तब कहीं मैं फूटकर टेढ़ा-मेढ़ा राह बनाती हूँ , और कर देती हूँ नदी को छिछला , मैं नदी हूँ ,मुझमें रहस्य है ,मर्म है,संयम है , एक सीमा तक स्थिरता और सहनशीलता भी मैं बावड़ी हूँ, बावली नहीं, उतावली नहीं प्रात में मेरे मन के विशाल प्रांगण में सूर्य किरणों संग अठखेलियां करता है सांध्य में चाँद मेरी गहराई में समां तारे सितारों संग रंगरेलियां क...

घूँघट जरा उलटने दो

         जितने भाव उमड़ते उर में जितने भाव उमड़ते उर में शब्द  ज़ुबां बन  जाते  हैं जहाँ अधर नहीं खुल पाते झट सहगामी बन जाते हैं  खुद में ढाल जज़्बातों को  मन का सब कह जाते हैं |  '' घूँघट जरा उलटने दो '' आयेंगे मेरे प्रियतम आज आँखों में अंजन भरने दो संग प्रतिक्षित मेरे संगी-साथी आज मुझे संवरने दो , घर की ड्योढ़ी साजन को पल भर जरा ठहरने दो दिवस काटे दर्पण सम्मुख नयन में उनके बसने दो , जी भर किया सिंगार उन्हें जी भर जरा निरखने दो हों थोड़ा बेज़ार वो उर उनका भी जरा करकने दो , देखें चांदनी का शरमाना वो घूँघट जरा उलटने दो संग खेलूं सावनी कजरी बांहें डाल गले लिपटने दो , अपलक देखें इक दूजे को थोड़ा आज बहकने दो देखूं चन्दा की भाव-भंगिमा थोड़ा आज परखने दो।         '' कोई याद आ रहा है '' रुमानियत भरा ये मौसम शायरी सुना रहा है गा रहीं ग़ज़ल फ़िज़ाएं अम्बर गुनगुना रहा है , मुँह छिपाये घटा में बादल खिलखिला रहा है इन्द्रधनुष भरे मृदुल आह्लाद मेघ लुभा रहा है , प्रफुल्ल पात-पात गले लग ...

सम्पूर्ण जगत में बस एक ही भगवान हैं

सम्पूर्ण जगत में बस एक ही भगवान हैं एक ही हैं भगवान मगर हैं नाम अनेकों गढ़े गए नाम के चलते ही हृदय बहुत हैं विष भी भरे गए , अरे प्रकट हो त्रिशूलधारी भटकों को समझाओ परब्रम्हपरमेश्वर, एकाकार एक ही हैं बतलाओ, स्वार्थ लिए  लोग  तुझे बाँटते  विभिन्न  धर्म-पंन्थों में दहशत फैला अशांति मचा रखे मुल्क़ों-मुल्क़ों में, ग़र ना समझें ये अपना रौद्र तांडव रूप दिखाओ जिनके उत्पात से त्रस्त सभी गह के वज्र गिराओ, बड़ा लिया तूने इम्तिहान और देखा खून खराबा मची नाम पे तेरे मारकाट तूं बैठा है कौन दुवाबा, हम तेरी श्रद्धा के साधक बस राम मंदिर बनवा दो जो मांगें जन्नत का प्यार उनका प्राण हूरों पे वार दो                                                   शैल सिंह

कई दिनों की बारिश से आजिज होने पर

कई दिनों की बारिश से आजिज़ होने पर, बन्द करो रोना अब बरखा रानी बहुत हो गया जल बरसानी भर गया कोना-कोना पानी , नाला उफन घर घुसने को आतुर, जल भरे खेत लगें भयातुर, रोमांचित बस मोर,पपिहा,दादुर , कितने दिन हो गए घर से निकले पथ जम गई काई पग हैं फिसले बन्द करो प्रलाप क्या दूं इसके बदले , कितने दिन हो गए सूरज दर्शन तरसे धूप लिए मन मधुवन कपड़े ओदे,चहुँओर सीलन रस्ता दलदल किचकिच कर दी मक्खी,मच्छर से घर भर दी गुमसाईन सी दुर्गंध हद कर दी , बिलें वर्षा जल से भरीं यकायक घूम रहे जीव खुलेआम भयानक जाने कब क्या हो जाए अचानक , बहुत हो गई तेरे अति वृष्टि की जा कहीं और बरस कई जगहें सृष्टि की क़ाबिलियत दिखा अपने क्रूर कृति की ।                           शैल सिंह