बुधवार, 18 मार्च 2015

जिन अधरों ने उनको पुचकारा

जिन अधरों ने उनको पुचकारा


वज्र की छाती वाली धरती माँ सी
औरत कितनी है बदक़िस्मत हाय 
मर्दों के हाथ का मात्र खिलौना बस  ,

जिस माँ ने जनकर ऐ मर्द तुझे
इक मर्द होने का है नाम दिया
उसी का मान सम्मान मसलकर 
तुमने सरेआम है बदनाम किया ,

उस पुज्यनिया की लूट आबरू 
दर्पित हो तूने अभिमान किया
चिथड़े-चिथड़े कर अस्मत के
उसे सरेबाज़ार निलाम किया ,

तूमने जान कोख़ में कन्या भ्रूण
इक माँ को बेवश मजबूर किया
कचरे का ढेर समझ निरीहा को
बिन जने ही अस्तित्व चूर किया ,

घर का चिराग़ इक मर्द ही हो
ताकि मर्द बने बेग़ैरत तुझसा
माँ,बहन,बेटी की अस्मत लुटे
चील,कौव्वा,गिद्ध बन तुझसा ,

बाप,बेटा,भाई,का फ़र्ज भूलाकर
मर्द तुमने दानवता का रूप धरा
तुमने मानवता को शर्मसार कर
विकृत सोच से मन का कूप भरा  ,

ख़रीद-फ़रोख़्त में वही बिकी रे 
नंगी शोभा बनी दर-दरबारों की
संसार के लिए वह वस्तु हो जैसे
भोग की साधन इज्ज़तदारों की,

पीर ज़ज्ब कर हर ज़ुल्म सहे वो 
हर ख़ता पर बस नाम उसी का
मर्दों के सेज़ की कामुकता पर
क्यूँ चिता सजे अस्मिता उसी का ,

हक़ सारा प्रभु ने मर्दों को दिया
औरत के लिए सजा जीवन भर
जिन अधरों ने उनको पुचकारा
उसीका व्यापार हुआ जीवन भर ,

जिस लहू ने कोख़ में तुझे तराशा 
उसका कैसा ये मोल दिया तुमने
जिसने दर्द सहा पल्ल्वित किया
उसे सरेबाज़ार तोल दिया तुमने ,

इस्मत के बदले एहसान जताया  
टुकड़ों-चीथड़ों पे पालकर अपने
ख़ुद को तपा सृष्टि को जिसने रचा 
चूर किया उसी के ख़ारकर सपने ,

मर्दों के हवस की शिकार बनी वह  
कुलटा पापन कहलाई अंधे जग में
हद पार की मर्दों ने हर बेशर्मी की 
दाग लगाकर छोड़ी गई दलदल में,

जब सब्र तोड़ता ग़ुरबत औरत का 
हारकर चकलों में जा लेती पनाह
अधम पेट,मर्दों के भूखे उदर लिए
बैरी जग का सीने में समेटती आह ,

कैसी क़िस्मत पाई बेचारी औरत
कैसी तकदीर की निकली खोटी
कैसी बदनसीब आह सृष्टिदायिनी
अपने बेटों की सेज सजीं माँ,बेटी,

वह तो रस्मों रिवाज़ की वेदी चढ़ी
ऐश का सारा हक़ नाम तुम्हारे मर्द
जिन्दा जलने को तूने मजबूर किया 
बलिदान कहा देकर उसे तुमने दर्द ,

वज्र की छाती वाली धरती माँ सी
औरत कितनी है बदक़िस्मत हाय
मर्दों के हाथ का मात्र खिलौना बस।
                                             शैल सिंह






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