'' सच्चाई ने जीती बाज़ी ''
दिन भर आग उगल सूरज जला नहीं निढाल हो गया
सारी रात जला एक दीप जल कर भी निहाल हो गया ,
ग़म सहना सीखा मैंने नीरव रजनी के गहन अंधेरों से
नीरस ज़िंदगी करने वाला भी खुद ही कंगाल हो गया ,
कभी रंगा नहीं किसी भी रंग में मैंने अपने अंदाज़ को
कभी रंगा नहीं किसी भी रंग में मैंने अपने अंदाज़ को
जब छोड़ी नहीं ख़ुद्दारी मैंने क़ुदरत भी बेहाल हो गया ,
देखो अपना ढलता सूरज मेरे किस्मत से खेलने वालों
देखो अपना ढलता सूरज मेरे किस्मत से खेलने वालों
सच्चाई ने जीती बाज़ी कहने लगे लोग कमाल हो गया ,
नमन करने वालों उगते सूरज को मेरा भोर भूला दिए
नमन करने वालों उगते सूरज को मेरा भोर भूला दिए
देखो बुरे लम्हों का साया खुद छूमंतर पाताल हो गया।
शैल सिंह
शैल सिंह