संदेश

नवंबर 30, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

पुरनिमा की रात का पैबन्द आँखों में सी रहे थे

कश्मीर में मतदान के दौरान  ..... रुख़ बदल रही हवाएँ रुत बदल रही फ़िजां की ख़ौफ़ की जद से निकल लौ जली नई शमां की देखिये वादी-ए-कश्मीर मे मतदान हो रहा है । जाग उठा ज़मीर बदली सोच अब आवाम की बर्फ सी पिघल के फांस भी खड़ी हुई चट्टान सी देखिये वादी-ए-कश्मीर का इम्तहान हो रहा है । आतंक के साये में जीस्त मर-मर के जी रहे थे पुरनिमा की रात का पैबन्द आँखों में सी रहे थे देखिये वादी-ए-कश्मीर का यूँ विहान हो रहा है |                                                     shail singh

मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो

मज़ार दियना जलाने फिर क्यूँ आये हो खड़े फ़ख्र से तुम नुमायां कई घाट से दम वफ़ाई का भरने फिर क्यूँ आये हो , क्या लौटा पाओगे यास के गुजरे दिन  गिन उँगलियों पे काटे हैं जो रात-दिन  बहारें तो आईं बहुत रंग भरने चमन  पर इंतजार की जिस्म पर थी चुभन  खण्डहर सी हुई अब वो नुरे-ए-महल  झाड़-फानूस लगाने फिर क्यूँ आये हो ।  ओढ़ीं ख़ामोशी,दीवारों की हर सतह  जो सजी संवरी थी हवेली तुम्हारे लिए  नाम की तेरे माला जो सांसों में थी  उलझकर भी गुँथीं थी तुम्हारे लिए  हो गई है मोहब्बत इन तन्हाईयों से  ऐसी आदत छुड़ाने फिर क्यूँ आये हो ।  ख़्वाहिशों पर परत चढ़ गई जंग की  हसरतों को बदा पर दफ़न कर दिया  कोई शोला था भड़का वदन में कभी  ढांपकर लाज़ का था कफ़न धर दिया  जिस चाहत की अब ताब मुझमें नहीं  ताब फिर वो जगाने फिर क्यूँ आये हो ।  इक पहर रोशनी की जरुरत बहुत थी  अब अँधेरे में रहने की लत पड़ गयी है  कभी सरे...

लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ

लाड़ली सुता का इक फकीरा मैं पिता हूँ न इंसान सुन रहा है न भगवान सुन रहा है  धीरज भी अब तो जैसे बलवान खो रहा है।  धूर्त वक़्त का परिन्दा हाथों से निकला जाए किसको बताएं कैसे क्या अंतर की वेदनाएं न शुभ काम हो रहा न शुभ विहान हो रहा है, धीरज  ....। पल-पल पहाड़ जैसे,लगती लम्बी काली रैना  आँखों से नींद गायब,ग़ायब सुकून और चैना न सुजलाम हो रहा न कुछ सुफलाम हो रहा है, धीरज ...। तक़दीर का सितारा आँगन में किस चमन के  बंधेगा साथ बन्धन किसके जनम-जनम के  न शीलवान मिल रहा न दयावान मिल रहा है, धीरज …। लिपटी अंधेरी चादर में लगें चारों ही दिशाएँ गली-गली की ख़ाक़ छानी बुझी ना तृष्णाएँ न मन का मुक़ाम मिल रहा अरमान रो रहा है, धीरज …।  मन की गिरह खोलूं किसकी उदारता के आगे विधाता लेखा-जोखा बेटी के भाग्य की बता दे न अनजान सुन रहा न ही पहचान सुन रहा है, धीरज ...। दुःखी लाड़ली सुता का इक फ़कीरा मैं पिता हूँ लाड़ली की फ़िक्र में ही मैं सोता और...