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अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो

अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो सुख-दुःख किससे बाँटे प्राणी हर हाल में दोनों ही देते संत्रास सुख में ईर्ष्या दुःख में उपहास, ऐसी हुई अवधारणा आज की सम्बन्धों में आ रही ख़टास अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो जग वालों ना यूँ रहो उदास , निश्छल मन से सम्बन्धों को जोड़-जोड़ करो हास-परिहास समानता के पथ पर चल कर मानवीय उदारता का दो आभाष  , सर्वमंगल की करो कामना रखो परोपकार का मन में वास स्वहित से तुम ऊपर उठकर स्वार्थ,संकीर्णता को दो वनवास, इसी में सबका सुख निहित है व्यापक भावनाओं से भरें उजास जीवन दो दिन का ना विषम बनाएं जाना सभी को परमात्मा के पास ।                                  शैल सिंह

'' हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में ''. एक मधुर गीत

कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, जबसे गये तुम छोड़ नगर लगे वीरां-वीरां मुझे शहर हवा गुलिस्तां से भी रूठ गयी अजनवी लगे हर गली डगर फब़े न जिस्म लिबास भरी तरूनाई में अब वो आबोहवा रूवाब नहीं अरूनाई में, कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, तुझे जबसे नज़र में कैद किया कभी ख्वाब ना देखा और कोई तेरी याद में गुजरी शामों-सहर दूजा शौक ना पाला और कोई खनखन बोले ना चूडी़ सूनी कलाई में रूनझुन पैंजनी भी ना झनकी अंगनाई में, कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, इस कदर हुआ बदनाम इश्क हमें दर्द का तोहफा मुफ्त मिला ख्वाहिशों पे पहरे लगे दहर के मौसम भी रंग बदला यही गिला हर शब स्याही चांद की भी रोशनाई में जहर लगे है कूक कोईल की अमराई में, कैसे कटे दिन-रैन तेरी जुदाई में नैना भरे बरसात झरें तन्हाई में, इक दिन खिले थे हम गुंचोंं की तरह किरनों की तरह बिखरा जलवा तेरे शुष्क मिजाज से हैरां दिल  गुजरी क्या इस दौरां तूं बेपरवा आनंद नहीं महफिलों की रंगों रूबाई में थिरकन में भ...