अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो
अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो सुख-दुःख किससे बाँटे प्राणी हर हाल में दोनों ही देते संत्रास सुख में ईर्ष्या दुःख में उपहास, ऐसी हुई अवधारणा आज की सम्बन्धों में आ रही ख़टास अन्तर्चेतना की दृष्टि तो खोलो जग वालों ना यूँ रहो उदास , निश्छल मन से सम्बन्धों को जोड़-जोड़ करो हास-परिहास समानता के पथ पर चल कर मानवीय उदारता का दो आभाष , सर्वमंगल की करो कामना रखो परोपकार का मन में वास स्वहित से तुम ऊपर उठकर स्वार्थ,संकीर्णता को दो वनवास, इसी में सबका सुख निहित है व्यापक भावनाओं से भरें उजास जीवन दो दिन का ना विषम बनाएं जाना सभी को परमात्मा के पास । शैल सिंह