कविता '' हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी ''
कविता हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी इक दिन जाना सबको पास उसी के जो तीनों लोकों का स्वामी है भले-बुरे कर्मों का लेखा-जोखा रखता ऊपर वाला अन्तर्यामी है , मत कहा करो जी तेरा-मेरा सब यहीं धरा रहा जायेगा माटी का तन माटी में मिल इक दिन ब्रह्मलीन हो जायेगा , बस ऐसे तत्वों को संग्रह करना जिससे मिले सुख,आनन्द भरपूर हँसी तेरी बन जाये दवा रुग्ण की जो निःशुल्क जिसमें प्रचुर मात्रा में गुर , विवेक की सम्पत्ति बाँट सभी में संग धैर्य का रखना हथियार सदा रक्षा कर विश्वास,संस्कार की रखना रिश्तों में प्रीत की घोल सम्पदा , मुख पर ऐसी मुस्कान बिखेरो कि पराये भी शामिल होकर हँसे आँसू तेरी आँखों के होकर भी बहते ही पराया होकर ख़ूब विहँसे , हो रहे पृथक मैं-मैं से सभी चलो हम-हम का रिस्ता जोड़ें इंसानियत,मानवता सबपर भारी दम्भ हैसियत का सस्ता छोड़ें , ज्ञान,सम्मान,श्रद्धा,नम्रता,दया जीवन तन के,शृंगार आभूषण हैं प्रार्थना,विश्वास अदृश्य भले हों पर कर देते अस...