तुम कहाँ हो बोलते
सर्प दंश से भी बढ़ कर घातक तुम्हारा मौन है , तुम कहाँ हो बोलते बोलती तुम्हारी चुप्पियाँ हैं मौन की भाषा अबोली कह देतीं मन की सूक्तियां हैं , इतनी विधा के भाव समेटे अधर विराम चिन्ह क्यों हैं शब्दों को रखते मापकर स्वभाव इतना भिन्न क्यों है, क्या-क्या उधेड़ बुनकर दिन रात तुम हो जी रहे कौन सा ऐसा गरल जो मौन घोंट कर हो पी रहे, मौन तो हो तुम मगर बोलती देह की भित्तियां हैं किस खता पे सौगंध तुमको बन रही कड़वी पित्तियाँ हैं, किताब भर ब्यौरा समेटे क्यूँ रखते अधर के बंद पट अंदाज की चंठ झाँकियाँ झाँकतीं नैन के पनघट, जब कभी गर खोलते हो भानुमति का बंद पिटारा बस गोल मोल बोल करते चन्द सा अस्फुट निपटारा, जीने लिए इस किरदार को मजबूर क्यों हो बोल दो चुपचाप की इन खिड़कियों को भड़भड़ाकर खोल दो, मूल्यवान मेरे हजारों शब्द से मौन की कुपित दृष्टियां हैं आत्मज्ञान की तुम खोज में मगर रहतीं तनी भृकुटियां हैं , वास्ता मुझसे अगर है मैं वजह हूँ मौन की तो ओ विरागी पूछती हूँ ढीठ बन मैं कौन हूँ, तुम बंद सीपी की तरह म...