शनिवार, 14 सितंबर 2019

कविता " कब तक सूरत संवारती रहूँ आइने में

कब तक सूरत संवारती रहूँ आइने में 


दुधिया  आँचल  फैलाए जवां  रात है
रेशमी स्मृतियों की  निर्झर बरसात है
खोल घूंघट घटा की चाँदनी चुलबुली
सजाई टिमटिम सितारों की बारात है

ख़ाब रूपहला सजाए हुए पलकें मूंद
स्वप्न की आकाशगगंगा में तिरती रही
गदराई चाँदनी छिटककर अंगना मेरे
मृदु-मृदु  स्पन्दन प्राणों में  भरती रही ।

मद्धिम हो जायेगी चाँदनी की उजास
आलम खो जायेगा ये भोर की गर्द में
रंग बिखर जायेगा हुस्न औ ईश्क़ का
कब तक सूरत संवारती रहूँ आइने में ।

तेरे बाड़े में भी हो ऐसी दिलक़श रात
मची हलचल ख़यालों की बस्ती में हो
हर लम्हा गुजारा जैसे तेरे एहसास में
तेरी भी रात जग आँखों में कटती हो ।

लफ्ज़ गूंगा तराशूं किन उपकरणों से
कि बयां कर सकें बेचैनियां ऐ बेवफ़ा 
बड़े ही तहज़ीब से  यादें पहलू में बैठ
देतीं जख़्म ज़िगर को भी दर्द बेइंतहा ।

उर में कोलाहल सन्नाटा फैली फिज़ा
खुशी कुहराम मचा बैठी हड़ताल पर
बेसबब इन्तज़ार का शामियाना लगा
रचातीं आँसुओं से हैं स्वयंवर रात भर ।

आख़िर कबतक नज़रबंद दिल में रहें
रतनारी आँखों में घटा बनी घिरतीं रहें
छुपा रखी जिसे दुनिया की निग़ाहों से 
उमड़ कर बरसीं शोर बरपा आँखों से ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                   शैल सिंह

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