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" तकिया पर कविता "

           तकिया पर कविता  कितना  बदनसीब दामन है तकिया तेरा नि:शब्द करवटों से कभी उकताती नहीं होती गलगल हो अश्रुओं की हमदर्द बन दर्द ख़ुदके सिरहाने से कभी बताती नहीं । हिलकतीं सिसकियों से बेतरतीब बिस्तर सिलवटों की एकमात्र तूं चश्मदीद गवाह इत्मिनान,सुकून,निश्चिन्तता की तूं हितैषी  ईश्क़ के मारों से करती मुहब्बत बेपनाह । तोड़ सब्र का तटबन्ध आँसू नदी की तरह  बसर ढूंढ़ते मन का समंदर हो तुम्हीं जैसे  सबकी अन्तरंग खुशी भी भींच आगोश में बन जाती  राजदार हमराज़  हो तुम्हीं जैसे । अनन्त पीर सह रखती स्मृतियां सहेजकर  नितान्त एकान्त क्षणों की बन सहभागिनी भर आग़ोश में तूं करती अद्भुत करिश्मा  संग रोती दर्द का अवलंब बन सहचारिणी । माँ की ममता सरीखे है तकिया आँचल तेरा दे थपकियां सुलाती सीने से लगा गा लोरियां रोना,हंसना,खुशी,दर्द,ग़म,जुदाई,ज़ख़्मों पर तकिया होती है निहाल लुटा नेह की झोरियां । तूं ज़ख़्म-ए-ज़...