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सितंबर 21, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गुजरे ज़माने की बातें

काल खण्ड की बातें  सब कुछ आज है पास मेरे  नहीं जो साथ रहा करते थे हम बाबूजी की पर्णकुटी में  आनंद विहार किया करते थे , थोड़ा ही सुख था तो भी क्या  दुःख थोड़ा ही किया करते थे  बैठ कुटुम्ब कबीला संग,नव  प्रेरक सद्भाव बहा करते थे , अभावग्रस्त था जीवन फिर भी  लघु दीप जला करते आदर्शों के  अनुकंपा असीम देवों की बरसती  लक्ष्य होते बस रोटी,घर,वस्त्रों के , नत शीश हृदय से जोड़ अंजुरियाँ  प्रभु का आह्वान किया करते थे  देवत्व,साधना,तप,स्तुति में नयना  शाश्वत सुख अभिराम किया करते थे , तृप्ति थी संतुष्टि अपार भी  अवसाद नहीं दबाव था कोई  नेह,दया,अनुराग अलख भाव  मन आँगन करुणा पूँजी बोई , नहीं ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश किसी से  ना दंभ,भय,लोभ किसी से कोई  पाट की खाट पर सारी रतिया  सबने सुख की निंदिया सोई , साधन,सम्पति,समृद्धि सब कुछ  हृदय घट ही क्यों है सूख गया  जिस पनघट पर सब मिलते थे,वो  अलमस्त आलम कहाँ म...

कुछ क्षणिकाएँ

हे मेरे अन्तर्यामी प्रभो   जीवन के  सूने स्वप्न सदन में   सृष्टि  की  समरसता  भर  दो   उद्भ्रान्त पथिक के विवर मन में            शाश्वत जीवन का रंग भर दो , लगता मेरा दुःख सबका दुःख है  सबका दुःख मेरा अपना दुःख है  तभी तो  राग एक  है रंग अनेक  और भाव एक है बस अंग अनेक , हम सब जलती आग के ईंधन हैं  मरना सबको इक दिन सत्य यही  क्षणिक मिलन के मोद में भूलें ना  मिलने औ बिछड़ने के तथ्य कहीं , दृढ़ प्रतिज्ञ हों तन-मन से यदि  तो नहीं असम्भव होता कुछ भी  जितनी विकट हो राह लक्ष्य की हो जाती सुगम पथ कंटकमय भी , कभी लक्ष्य नहीं देखता     धुप,ताप,छाँह,बिजलियाँ        पग चल पड़ते हैं बेपरवाह          दिशा की खोज में अन्जान              चाहे लाख काँटों भरी हों...

माँ अम्बे

           माँ अम्बे ये शिलाएं तो बेजान शिल्पी की रचना क्यूँ भटकती रही आज तक द्वारे-द्वारे माँ के दर्शन को प्यासी ये दोनों आखें जगदम्बे बसी जब कि उर में हमारे , मन में विश्वास का एक मन्दिर बनाकर कल्पनाओं में साकार प्रतिमा सजाकर सच्ची लगन का दीया,धूप,चन्दन,अगर अखण्ड श्रद्धा की रोली,अक्षत चढ़ाकर , विश्व संताप के शमन को हवन हैं किए सुख शांति औ समृद्धि अमन के लिए आरती भी उतारी पूजन,अर्चन किया शीश चरण में झुकाया नमन के लिए , जग की नैया डांवाडोल अब हो रही देवभूमि से संस्कृति विलुप्त हो रही हम सबकी आधार माँ बस तू-ही-तू टूटी कश्ती की पतवार इक तू-ही-तू , दोनों कर जोड़ती अर्चना सुन ले माँ स्याह फैला अँधेरा धरा पर मिटा दे मन से मन के सभी टूटे तार जोड़कर प्रेम की जग में पावन सी गंगा बहा दे , मन के दुर्भाव कर भष्म नैन ज्वाल से जग में सद्भाव भर दे अभय हस्त से हम सन्मार्ग पर ही सदा चलते जाएं कभी जिसपे न आँधी औ तूफान आए , भाव भक्ति का भर सदाचारी बना स्वार्थ सारे मिटा परोपकारी बना शिष्य तेरे सभी स...

''अपनों ने जो दर्द दिया''

अपनों ने जो दर्द दिया कहना तो चाहुँ बहुत कुछ मगर सम्भल जाये ज़ुबाँ तो मैं क्या करूँ , शब्द शिकवे के बड़े ही लचीले यहाँ अर्थ का अनर्थ ना हो जाए कहीं मोड़ एक पड़ाव पर जो ठहरे अभी हैं परे हटकर कुछ हो ना जाये कहीं मैं अनुरक्त उनकी वो समझ ना सके भ्रान्ति मन में उठे तो मैं क्या करूँ । लाख दे दो हमें तुम बद्दुवाएं मगर साये से अपने विरत ना करना कभी मुझसे प्रश्नों की झड़ियाँ लगाने से पहले अरे परखा तो होता विश्वास को भी पृष्ठ पीछे क्या-क्या गुल खिला दिए गये  आप मुझसे छुपाएं तो मैं क्या करूँ । उस ग्रन्थि को कैसे सुलझाऊँ भला,जो निपुणता से रंग-रंग में बोई पिरोई गई मिलेगा कहाँ रंग-रोगन खुद ही बता दो पालिश कला में ये जुबां जो डुबोई नहीं मुझे तूलिका में सही रंग भरने ना आया हजार रंगों की ये दुनिया तो मैं क्या करूँ । अब समझने को बाक़ी कुछ भी नहीं भाषा भावों की आती है पढ़नी मुझे विवश धैर्य का ज़ाम थामे मैं घुटती रही सही समय की प्रतीक्षा ने रोका मुझे कौन कितना ग़लत कौन कितना सही आप इससे अन्जान हैं तो...