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" कब होगा आँगना में आगमन तुम्हारा "

कुम्हला गए ताजे पुहुपों के वंदनवार पथरा गये नैना खंजन करके इंतज़ार बीते दिवस कित बीति जाये कित रैन चली गईं जाने कित आ आकर बहार , मुरझा गया कुन्तल केश सजा गजरा विरक्त लगे चन्द्रमुखी चक्षु का कजरा लुप्त हो गई लाली रक्तिम कपोल की अविरल वर्षे नेत्र भींजे कंचुकी अंचरा , संभाला ना जाये धड़कनों का आवेग आएगी मिलन की कब रुत का उद्वेग कब होगा आँगना में आगमन तुम्हारा   सहा जाये ना भावाकुल उर का संवेग , पलकों पे छाई रहती याद की ख़ुमारी छवि अंत:करण बसी अनुपम तुम्हारी गुनगुनाते,मंडराते अलि जैसे रात-दिन ताड़ प्रीत की ख़ूब उत्कंठा तुम हमारी , अनकहे भाव अलंकृत शब्दों से करके  रचनाओं में सृजित करूं मर्म विरह के अन्तर्मन की पीर संग्रह गीतों में करके गुनगुनाया करती नीर दो दृगों में भरके , करती स्वर रागिनी से कलह असावरी अवसादों से भरी काटूं विरह विभावरी कर ख़ुद से हुज्जत जुन्हाई भरी रैन में अपलक निहारूँ चाँद,जैसे कोई बावरी , अविलंब हरषा जा उतप्त हृदय आकर  सर्दी के घाम सी नेहवृष्टि कर आस पर सन्निपात व्याधि जैसी रूग्ण काया हुई कल्पना के उड़ती उन्मुक्त आकाश पर । आसावरी-...