नक़ाब पर ग़ज़ल
नक़ाब पर ग़ज़ल चलती थी सड़कों पे बेनक़ाब हुस्न ने परदा गिरा दिया जब याद ज़माने ने मुझे उम्र का दरजा दिला दिया । क़ैद कर लो हिज़ाब में जरा ये शोख़ अदाएं ये मस्त जवानी कह - कह कर बुज़ुर्गों ने मेरे ज़िस्म का ज़र्रा-ज़र्रा जला दिया । मुड़ -मुड़ के देखते थे लोग जिस गली से कूच करती थी मेरी बेबसी का ऐ खुदा तूने अंजाम ये कैसा सिला दिया । इस बेबसी में बतायें ज़नाब मुस्कराएं तो भला हम कैसे कहाँ से आई ये पाग़ल शबाब जो हमें परदानशीं बना दिया । रुख़ पे कैसा लगा रूवाब ये किन अल्फ़ाज़ में कहूँ लोगों इस बेकसूर नूरे हूर को बस तसब्बुर का आईना बना दिया । ...