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नक़ाब पर ग़ज़ल

नक़ाब पर ग़ज़ल  चलती थी सड़कों पे बेनक़ाब हुस्न  ने  परदा  गिरा  दिया  जब   याद  ज़माने  ने  मुझे  उम्र  का  दरजा दिला दिया ।  क़ैद कर लो हिज़ाब  में जरा   ये शोख़ अदाएं ये मस्त जवानी  कह - कह कर बुज़ुर्गों  ने  मेरे ज़िस्म का ज़र्रा-ज़र्रा जला दिया ।  मुड़ -मुड़  के  देखते  थे  लोग  जिस गली से  कूच करती थी  मेरी  बेबसी का ऐ  खुदा  तूने  अंजाम  ये कैसा  सिला दिया ।  इस बेबसी  में बतायें ज़नाब  मुस्कराएं तो भला हम  कैसे  कहाँ से आई ये पाग़ल शबाब   जो हमें परदानशीं बना दिया ।  रुख़ पे कैसा लगा रूवाब ये  किन अल्फ़ाज़ में कहूँ लोगों  इस बेकसूर  नूरे हूर  को बस  तसब्बुर का आईना बना दिया  ।                                ...

कुछ शेर

             कुछ शेर छोड़कर अपना सामा शहर आपके छोड़कर जब चली मैं शहर आपका अहदे-वफ़ा के महकते रस्ते वो लम्हें  साथ आया याद का कारवां आपका , तेरी अता करूँ या परस्तिश ऐ मौला कभी तो गुजारिश मेरी भी सुन ले भर दे झोली मेरी भी मता-ए-ऐश से मुज्ज़तर बहुत हूँ तारीक मेरा हर ले , भर दिए वक़्त ने तो हर ज़ख़्म लेकिन  वक़्त गुजारने में क्या से क्या गुजर गई क्या मालूम उन्हें शबे-फ़िराक़ की सदा ख़ामशी ना जाने क्या-क्या निगल गई । अता--तारीफ़ , अज़ाब--मुश्क़िल , मता-ए-ऐश--सुख चैन की पूंजी मुज्तर--घायल,दुखी,  तारिक--अँधेरा,  शबे-फ़िराक़--जुदाई की रात                                    शैल सिंह