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जुलाई 24, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अभिव्यक्ति की आजादी है इसीलिए अभिव्यक्त किया है

अभिव्यक्ति की आजादी है  इसीलिए अभिव्यक्त किया  हम ध्वज चाँद पर फहरायेंगे क्षितिज का चाँद हमारा है देखो तीन रंगों के बीच चक्र अभिप्राय बड़ा ही प्यारा है , तूं झंडे पर चित्र बना चाँद का,ध्यान रहे आधा अधूरा हो आधे चाँद के बीचो-बीच में बस एक ही टंका सितारा हो  , पवन नीर सब अपना सूरज पर भी अधिकार हमारा है आस्मा सहित चाँद के जुगनूँ तारे,सबपर राज हमारा है , जल ज़मज़म का पीकर भी तेरे मन का सोता ख़ारा है यहाँ हर मन के सोते से फूटती गंगा की पावन धारा है , अपराध की फ़ेहरिस्तों से गदगद होता ख़ुदा तुम्हारा है सद्गगुण,सुमार्ग,सत्कर्म से अभिभूत होता नाथ हमारा है ।                                                  शैल सिंह 

अपनों से ही ठोकर खाई

अपनों से ही ठोकर खाई यह कविता उनके लिए जो परिश्रमी मेधावी होने के बावजूद भी लोगों के अन्याय का शिकार होते है ,फिर भी हारते टूटते नहीं ,गिर के फिर संभल जाते है अगली लड़ाई के लिये और पुनः संकल्प की टहनियों को संजीवनी दे पुनर्जीवित करते हैं मंजिल तक पहुँचने के हर प्रयास को ,बार-बार परास्त हो साहस को और शक्तिशाली बना विरोधियों को मजबूर कर देते हैं सत्य की ठोस जमीं पर उतरने को। संकटों में घिरकर भी लक्ष्य को सकारात्मक बना लेते हैं सामर्थ्यवान की गलत नीति को धराशाई कर देते हैं और सत्य की जीत पर वो कभी-कभी छलांगे भी लगा लेते हैं,जो भी कुर्सी का गलत उपयोग करते हैं उनके लिए भी मेरी ये कविता है ,किसी के पक्षपात के लिए किसी योग्य का अहित नहीं करना चाहिए । तूं भी कश्ती पे सवार है कश्ती मेरी डूबाने वाला तूं भी धरती पे इंसान है भगवान नहीं कहलाने वाला डर तूफ़ां की मौन हलचल से ज्वार उफ़ान पे आने वाला ईश्वर की लाठी बेआवाज़ सुन वही तुझे तेरी औक़ात बताने वाला , इतना गुरूर हस्ती पे हस्ती ही सबक सिखाएगी जिस चाबुक से किया वार अक़्...

फर्ज बताने हम निकलें हैं

चित्र
कारगिल दिवस पर  कारगिल दिवस पर  अखण्ड भारत का अखण्ड दीप जलाने हम निकले हैं करें हिन्द पर प्राणउत्सर्ग अलख जगाने हम निकले हैं ज्योति से ज्योति बिखेरने की मुहीम पर हम निकले हैं साथ कारवां का निभाने की अपील पर हम निकले हैं जागो भारतवंशी एकता का हार पिराने हम निकले हैं शहादतों का कर्ज उतारना फर्ज बताने हम निकलें हैं ग़द्दारों की विकृत ज़मीर को धिक्कारने हम निकले हैं रचनाधर्मिता की मशाल से तुम्हें जगाने हम निकले हैं                                                   शैल सिंह 

क्या भाव हृदय के जाने

क्या भाव हृदय के जाने  तूं पत्थर तेरा दिल पत्थर क्या भाव हृदय के जाने क्यों लहूलुहान विश्वास करे कभी आस्था नहीं पहचाने मनकों की माला फेरूँ क्या कैसे नाम रटूं तेरा जिह्वा पर क्या पुष्पों का हार चढाऊँ और क्या-क्या वारूं दीया पर सच्चरित्रता,सत्कर्म,ईमान,कर्मठता का ग़र तुझे फल देना घातक इतना तो फिर सन्मार्ग चलें क्यों तेरे लिए    जियें चल कुमार्ग पर जीवन अपना कितना धैर्य का लेगा इम्तिहान तूं कितनी बार करेगा नाइंसाफ़ी  भक्ति-भावना छोड़ दी अब तो करले जितनी करनी वादाख़िलाफ़ी  तेरी दिव्य दृष्टि किस काम की जब उचित-अनुचित अनर्थ ना देख सके तूं पाखंडी पाषाण की निष्ठुर मूरत होता कितना अन्याय ना रोक सके ग़र तेरी लाठी में दम है इतना तो कर वार मेरे दुश्मन पर जिसने इतना गहरा घाव दिया कर बेआवाज़ प्रहार उस तन पर।                       शैल सिंह