शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

माँ पर कविता

'' माँ पर कविता ''


सबसे प्यारी सबसे न्यारी
पूज्यनीया है माँ
माँ से बढ़कर दुनिया में
नहीं कोई बड़ा इन्सान
माँ के आगे सब कुछ बौना
बौना लगे भगवान
माँ दुनिया की पहली अवतरण
जिसे कहते हैं माँ
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

माँ शब्द शहद से मीठा
आत्मीयता सोम सी माँ की
माँ सृष्टि सृजन की रचईता
सारे अनुष्ठान चरण में माँ की
सबसे बड़ा तीरथ माँ का दर्शन
चारों धाम परिधि में माँ की
माँ त्याग,तपस्या करुणा की देवी
पूजा,मन्त्र है जाप जहाँ की
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

गर्भ के तेरे गहन प्रेम की
मैं उपलब्धि हूँ माँ
बिना तेरे कहाँ सम्भव था
दुनिया में मेरा आना
कितनी पीड़ा दर्द सहा कि   
मैं दीदार करूँ दुनिया का 
सारी दुनिया तुझमें समाई
कभी कर्ज़ चुके ना माँ का
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

तूं ममता की पावन मूरत
तेरा आँचल सुख का सागर
रात-रात भर जाग सुलाई
मुझको लोरी गाकर
तेरे आँचल की छाँव में छलका
निस दिन स्नेह का गागर
भींच सीने में सिर सहलाई
खिली अंक में मुझे लिटाकर
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

अतुलनीय तेरी ममता,मुझपे
जीवन सहर्ष न्यौछार दिया
कर्तव्य निर्वहन की बेदी पर
वैविध्य प्यार,दुलार किया
तुझ सा नहीं बलिदानी कोई
न तुझ सा माँ कोई उदार,
रक्तकणों से निर्मित कर दी
इतना बड़ा संसार 
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

सबसे अमूल्य तोहफ़ा ईश्वर की
कैसे शब्दों में बाँधूँ माँ को
सहा ना जाने कितनी मुसीबत
कभी आंच न आने दी मुझको
सबसे सुन्दर​ माँ की रचना 
माँ से सुवासित ये संसार
सर्वस्व लूटाकर बरसाई बस
आशीषों की तरल फुहार
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

कहाँ मिले तरुवर तले रे माँ
तेरे आँचल सी मीठी छाया
बहुत से रिश्ते दुनिया में पर
निःस्वार्थ ना तुझ सी माया
गीली शैय्या सोकर तूने
दिया आँचल का नरम बिछौना
तेरे अंश को नज़र लगे ना
दिया काजल का चाँद डिठौना
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

दुनिया में लाई श्रेय तुझे माँ
तेरी उँगली पकड़ सीखा चलना
तूं ही मेरी पहली प्रशिक्षक
तुझी से सीखा बोलना हँसना
हर मुश्किल में तूं संग मेरे
हर जिद पूरी तुझसे
गलत सही का फ़र्क भी जाना
बतलाई तेरी ही सीख से
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम ,

भले तूं ओझल दृग से
तेरे एहसास की ख़ुश्बू तन में  
हर पल महसूसती आज भी
तेरी मौजूदगी माँ कण-कण में
तेरे स्पर्श को तरसें बांहें
अँकवार में भरकर रोने को
ढूंढ़ रहे तुझे नैन विक्षिप्त हो
घर के कोने-कोने को
कि तेरे जैसा कोई नहीं माँ
न तेरे जैसा सुन्दर नाम |

डिठौना --नजर न लगे इसलिए काजल का टीका

                      शैल सिंह

दीवाली पर कविता ''

            '' दीवाली पर कविता '' 

शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ,

हर्ष उल्लास का पर्व दीवाली 
रिश्तों में खूब गर्माहट लाना 
दूर भगा अंधेरा नेह लूटाना
नभ तारे शरमा जायें पावन हो तेरा आना ,

शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ,

धवल ज्योति से उजियारा कर
नफ़रत की दीवार ढहाना
ईर्ष्या,द्वेष मिटा प्रेम,सौहार्द्र बरसा
रौनकता से शान्ति का साम्राज्य बिछाना ,

शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ,

आसुरी वृत्तियों का कर प्रतिकार
अमावस की काली रात भगाना 
जग पर कर अनन्त काल अधिकार
कण-कण अणु-अणु में प्रकाश बिखराना ,

शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना ,

मन का भाव बतासे सा मीठा हो 
दुलराना खिले खील सा अन्तस्तल 
खुशियों की सौगात लुटाकर
आगमन से शुभ पर्व ये परमानन्द बनाना ,

शत-शत अभिनन्दन माँ लक्ष्मी तेरा
आना हंसा पे सवार मेरे घर आँगना । 

                             शैल सिंह

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

"मिले आँखों को सुकूं चले आओ तुम

अविचल द्वारपाल बन खड़ी द्वार पर
दो पुतलियाँ बावरी तक रहीं राह पर
काटे कटता नहीं लमहा इन्तज़ार का
कितनी शामें गुज़र गयीं दहलीज़ पर ।

लौट आने की शर्त पर जहाँ छोड़कर
तुम गये थे खड़े हैं हम उसी मोड़ पर
कैसे भूले मिलन का प्रथम तुम प्रहर 
प्रणय पल में दिए जो वचन तोड़ कर ।

धड़कनें भी तो नादान धड़कें यादों में
इस क़दर समा गये शिराओं सांसों में
मिले हृदय को सुकून चले आओ तुम
घटा सावन सी घुमड़े सदैव आँखों में ।

पथ आते-जाते हैं कितने बटोही मगर
बेख़्याल तुम हो गये या निर्मोही डगर
जागी हर रात श्वेताभ चाँदनी संग मेरे
नभ के तारों से पूछलो न मानो अगर ।

उन्नीदे नयनों में बीति रातों के वृतान्त
पढ़ लेना काटे जो वक्त तन्हा नितान्त
ग़र आ ना सको दो निज घर का पता 
सब्र होता नहीं उर है कितना अशान्त ।

सैलाब बन प्रीत का बहूं जीवन में तेरे
फिरूं नींद का ख़्वाब बन नैनन में तेरे
मन के पतझड़ में तेरे अभिलाषा मेरी 
झूमूं शादाब सा पुष्प बन चमन में तेरे ।

शादाब--हरा-भरा
सरवाधिकार सुरक्षित
 शैल सिंह

रविवार, 14 नवंबर 2021

शहीद की पत्नी का विलाप

लौट कर आने की बात कहकर गये
चाँदनी की रश्मि से भोर होने तलक
पथ निहारा की सारा दिन सारी रात 
आँखें पथरा गईं राहें देखते अपलक ।

हुआ इंतज़ार ख़त्म वे आए तो मगर
तन पर डाल तिरंगा शान से द्वार पर 
जिनके इंतज़ार में दिनरात की बसर
मनहूस सहर लाई  जाने कैसी ख़बर ।

अमर रहे,क्रंदन,ज़िन्दाबाद का नारा
पुष्पवर्षा,शोक धुन,रोदन हाहाकारा
जन समूह का इकट्ठा हुजूम देखकर  
थम गईं धड़कनें दृष्टि देखे जो मंजर ।

कर्तव्य के अनुरागी वे वतन के लिए 
शहादत का ये गौरव वरण कर लिए 
जिनके आस में जलाई दृगों के दीये
सात फेरों के वचन तोड़ वे चल दिये ।

कर्ज माटी का चुका वे फर्ज निभाए
श्वेतवस्त्र नजर कर मेरा अंग सजाए
करवा चौथ तीज व्रत का अंत कैसा
उम्र भर के विरह का दिया दंश ऐसा ।

झट बिंदिया सिंदुर मेरी पोंछ दी गई
तोड़ मंगलसूत्र चूड़ी भी कूंच दी गई
वैधव्य के पोशाक में शक्ल देखकर 
बहने लगे सब्र तोड़ आँख से समंदर ।

विछोह सहने की क्षमता लाऊँ कैसे
जो दरक रहा भीतर समझाऊं कैसे
वर्दी की लाज रखे वो अमर हो गये 
हमारी दुनिया लुट गई बेघर हो गये ।

सहर—सुबह , नजर---तोहफ़ा 
सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 

शनिवार, 6 नवंबर 2021

" मैं सीपी के मोती जैसी "

मैं सीपी के मोती जैसी


हमराह में साथी नहीं संगी कोई अपना
भरे जो रंग गहबर सा अधूरा ही रहा सपना

मिले मंजिल मेरी मुझको 
अभिलाषाएं भटकती हैं 
महत्वाकांक्षा रही सिसकती 
उमर पल-पल गुजरती है ,

गगन के सितारों सी चमकने की कल्पना थी 
जमीं पर पांव चाहत चाँद छूने की तमन्ना थी । 

अपनों ने दिखा दिवा सपना 
कंचन सा विश्वास ठगा मेरा 
खुद की धुरी के चारों ओर 
बस डाल रही अब तक फेरा ,

घायल मन की व्यथा मिटा यदि कोई बहलाता 
चाहे अनचाहे सपनों की यदि मांग कोई भर जाता । 

सागर से भरी गागर है 
मन रीता-रीता सा ही 
मोती सी तरसती तृष्णा 
घर संसार सीपी सा ही ,

टूटे साजों पर गीत अधूरे किस्मत काश संवर जाए 
चाहत पर चातक की शायद स्वाति की बूँद बरस जाए । 

कस्तूरी जैसी महक मेरी 
ये जागीर ना देखा कोई 
असहाय साधना की राहें 
ऐसी तरूण कामना खोई ,

घरौंदों को आयाम मिले कब किरण भोर की आएगी 
कब कसौटियों पर खरी उतर शख़्सियत गर्द मचाएगी । 

विराट कलाओं की पूँजी 
रेतमहल सी धराशाई 
क्या सपनों का सिंगार करूँ 
मधुमय मादकता अलसाई ,

नगीना कुंदन सा निखरता यदि होता जौहरी कोई 
कीचड़ में खिला कमल ड्योढ़ी मंदिर की सौंजता कोई । 

मजबूर अभावों में पल-पल 
लीं कोमल उड़ाने अंगड़ाई  
कद्रदान तराशे होते अग़र 
इन उद्गारों की सुघराई ,

अब समर्थ किस काम अहो शाम ढली सूरज की 
हे री मन वीणा की चिर पीड़ा झंकार उठी धीरज की । 

कहाँ चाह पहाड़ों के कद सी
कब मांगी सूरज के तेवर 
घटते वसंत लघु जीवन के 
कहाँ मन के धरूँ धन ज़ेवर ,

हाशिये पे रखने वालों कभी ना आंकना कमतर 
खुद में ऐसी रवानी पानी सी राह बना लेगी बहकर । 
                                                    शैल सिंह 

बुधवार, 3 नवंबर 2021

दीवाली पर कविता

                    '' दीवाली पर कविता ''



दीवाली का पर्व है आया देशवासियों अबकी बार दीवाली में
आओ चलो फिर से इतिहास दुहरायें अबकी बार दीवाली में ,

माटी के दीये जलाकर अपने संस्कृति की अलख जगायें हम 
परित्याग कर चाइनीज़ वस्तुएं, वस्तु स्वदेशी ही अपनायें हम ,

पुनर्जिवित कर परम्पराओं को दीपावली यादगार बनायें हम
राष्ट्रभक्ति के भाव के बीज,जन-मन में बोने को उकसायें हम ,

स्वदेशी वस्तुओं से बनें स्वावलंबी ऐसा महायज्ञ करवायें हम
जले स्नेहसिक्त दीप मन से मन में,मन के तिमिर मिटायें हम ,

घर बाहर पग-पग दीप जला हर्ष उल्लास से पर्व मनायें हम
देहरी सजा दीपों से माँ लक्ष्मी को घर सादर प्रेम बुलायें हम ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 

शैल सिंह 

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

" पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं "

" पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं "


मृदुल अहसासों  का असंख्य  उपहार दे
ग़म,दर्द, ख़ुशी प्यार का अनन्य संसार दे 
प्रीति की  ज्योति आँखों  में जलाकर गये
चैन दिन का  नींद रातों की  चुराकर गये ।

मधुर बोलों से कर के  गुञ्जार श्रवणेंद्रियाँ
अपने आधीन कर श्वांसें,धड़कनें,इन्द्रियाँ
छू गात अनुराग से चित्त गुदगुदाकर गये
मंजु कलिका उर में प्रेम की उगाकर गये ।

दिल,ज़िगर,क़रार सब अपने संग ले गये
शूल इंतज़ार के एवज में वे बेअंत दे गये   
रंगीन ख़्यालों के भंवर में उलझाकर गए
तृषित नयनों में भोली छवि बसाकर गए ।

शरीर मेरा है मगर जीव  मुझमें मेरा नहीं
उनके रंग में घुल बह रही अधीर मैं कहीं
ले परिधि में बांहों के ज़न्नत दिखाकर गए 
अनुराग का आसव  नैनों से पिलाकर गए ।

लगे सरसराहट हवा की मुझे आहट तेरी
राह भूले गली का भला किस बाबत मेरी 
क्यों झूठे वादों का दिलासा दिलाकर गए
सितारे आसमानी दिवा में  दिखाकर गए ।

चाँद,तारे क्षितिज के जाने गये सब कहाँ
थे जो कभी साक्षी हमारे प्रीत के दरम्याँ
भीड़ में भी गुमसुम रहना सीखाकर गए 
हसीं ज़िन्दगी वे मेरी बेहिस बनाकर गए ।

हर घड़ी क्यूँ सांस में वो याद बनकर रहे
यादों की भी काश यदि कोई सरहद रहे
न कितना करना सफ़र तय बताकर गए
न पता क्या अपने शहर का बताकर गए । 

सुना है शहर में आजकल वो आये हैं मेरे
चल पड़ी मिलने बेधड़क तोड़ सारे पहरे
इस क़दर वे मुखड़ा  मुझसे छुपाकर गए
पीर और अतिशय हृदय की बढ़ाकर गए ।

पी ज़हर का प्याला भी ये दर्द मरता नहीं
खा बेवफ़ाई के ज़ख़म भी  संभलता नहीं
शराफ़त से वो हजारों ग़म  बिछाकर गए
किस ज़ुर्म की सजा में ऐसे तड़पाकर गए ।  

आसव---मदिरा
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह



बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

नज़्म '' मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो काग़ज़ ही जानते हैं ''

 '' मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो  काग़ज़ ही जानते हैं  ''


कहते हैं लोग मुझको दीया साँझ को जलाया करो
जबकि रहता मकाँ रौशन उसके यादों के चराग़ से
अब तलक ज़ेहन में ताज़ी है वस्ल की सुहानी रात
कभी हिज्र में भी ना हुईं रुख़्सत वो यादें दिमाग़ से ।

बहुत सोचा कर दूँ ख़यालों को आज़ाद ग़िरफ़्त से     
ख़ुश मिज़ाज यादें छोड़तीं ना पीछा दिल तोड़ कर 
शुक्र है कि कर लेती हूँ  दर्द बयां लिख काग़ज़ों पर 
वरना अब तक बिखर गई होती दिल कमजोर कर ।

जबकि मालूम ख़्वाब झूठे पर जिंदा रहने के लिए
मेरी तन्हाइयों,ख़्वाबों को और महका जाता है वो
ये कैसा अनूठा रिश्ता ज़ुदा हो भी नहीं होता ज़ुदा
मेरी हर रात,अलस्सुबह ग़ुलों से सजा जाता है वो ।

कैसे सीखूँ  श्वासों में बसा उसे  भूल जाने का हुनर
बड़ा दर्द होगा मर के जीना रातों का दर्द मिटाकर 
घुल-घुलकर भुला दिया ख़ुद को उसकी चाहतों में
उसकी आदत सी है रखा जिगर में दर्द संभालकर ।

सारे रिश्ते तोड़े उसने ताउम्र बस क़ुसूर ढूंढती रही 
जीती रही भरम में  समझी ना नज़रअंदाज़ उसका
इक लम्हे के प्यार लिए लुटा दी मैंने सारी ज़िन्दगी
उसके आने की उम्मीद में निगाहें देखें राह उसका ।

मेरे लफ़्ज़ों का दर्द क्या है वो काग़ज़ ही जानते हैं 
बेरंग लगे ज़िन्दगी ध्वनियाँ धड़कनों की शोर जैसे
उससे कह दे जा कोई लौट आये बैठी इन्तज़ार में
लगे सारा शहर उसके बिना वीरां हो गया हो जैसे । 

वस्ल—मिलाप, हिज्र—विछोह 

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह


झूठी मुस्कुराहटों के सूखे होंठों पे दर्द
लफ़्ज़ बन उसे कर देंगे बज़्म में बेपर्द ।

पीये होती ग़र शराब हो जाता वबाल
इसलिये पी लिया समन्दर आँखों का
यदि होता हक़ीक़त सब पूछते सवाल
इसलिये छुपा लिया बवंडर आँखों का ।

किसे परवाह इन मासूम आँसुओं की  
तैरे बेबसी की  किश्ती सब्र आँख का
रहके पलकों की हद में,लब रख हँसी
करता रहता ख़ुदकुशी अब्र आँख का ।

ख़ुदा जानता है मेरे दिल में बात क्या
वो होता बेनक़ाब कह देती बात क्या
मुझको नहीं देना हर बात का जवाब
ख़ामोशी बता देगी  दिल में बात क्या ।

ज़िन्दगी की भी कैसी हाय ये बेचारगी  
रोने को विवश, ज़ब्त करने में लाचार 
गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह
भीतर की तबाही के सह के अत्याचार ।

अनायास खर्च किया मैंने आँसू हज़ार 
बेवफ़ाई के मंडी में हुई वफ़ा शर्मसार
चुपचाप बिखर जाऊँ या करुँ बयां दर्द
या काटूँ सज़ा उम्मीद की करुं इंतज़ार ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह आँख

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता '' हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक ''

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता 
हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक 


होता नहीं यक़ीं कि तुम इस जहाँ में अब नहीं
अश्क़ बहें तेरे याद में आँखें किसकी नम नहीं
मुक़र गई नींद नैयनों से बिलखते गुजरती रात
तुम अब लोक में नहीं कैसे दिलाएं यह विश्वास  ,

तस्वीर तेरी जब कहीं दिखाई देतीं आँखों को
छलक उठते हठात् आँसू भींगो देते गालों को   
जैसे ऋतु बरसात की आँखें रहतीं हरदम नम   
क्यों मौत को लगा गले दिये इतने तुम ज़ख़म ,

अच्छा हुआ दिन शोक का देखने से पहले माँ 
परलोक गईं सिधार वरना देखतीं यह हाल ना  
न जाने बीतती क्या माता पर कैसा होता मंज़र
असह्य वेदना सोच नयन में उतर आता समंदर ,

क्या होगा हाल पापा का इक बार भी न सोचा  
थे इकलौते भाई बहनों के इक बार ये न सोचा 
कैसी वेदना थी मन में ऊफ़ मथते रहे ख़ुद को 
कष्ट यही,लेते व्यथा बांट दंड देते नहीं ख़ुद को ,

मातम अरमां का मना मृत्यु का ख़याल छोड़ते
किसका डर,भय किस बात का मलाल बोलते
कचोटता है हृदय सहा अपार दर्द क्यों अकेले 
कोई हमदर्द काश समझा होता मर्म कैसे झेले ,

हम सबके दिल में जिंदा रहोगे मरते दम तक
कहाँ ढूँढें तुझको दिए नहीं पता तुम अब तक
दीप सभी तेरे नाम का जलाए  रखेंगे तब तक
इन्साफ़ तेरी मौत का दिला देंगे नहीं जब तक ,

अरे मौत के सौदागरों सुन लो कान खोलकर 
करना गुनाह कुबूल या जाना जहान छोड़कर
हम सबने ठान लिया तुम सब को नंगा करना  
सड़कों पे उतर करेंगे हम प्रदर्शन दंगा धरना ।


सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

“ हम हैं विश्वगुरु “

भारत फिर से विश्व के मानस पटल पर एक अलग पहचान बना रहा है ।                           

                            ' हम हैं विश्व गुरु '

    हो चाँद हमारी मुट्ठी में हमें करना सूरज भी बस में 
    उत्तुंग शिखर से सागर तक हम चमकें सारे जग में ।

शांति,अमन के हम प्रहरी तुझे पाक उत्पात मचाना आता 
जब ख़ुश्बू होगी आम हमारी करनी पर होगा तूं पछताता ।

हम बेजा वक़्त नहीें गंवाते तुझ सा असभ्य हरकतें कर के 
करना मुकाबला तो आओ ना पथ विकास के चल कर के ।  

भगवान हमारे मस्जिद में रमते ख़ुदा रहता मन्दिर में तेरा
हम सुनें अज़ान मस्जिद की सुने तूं स्त्रोत मन्दिर का मेरा ।

हम मलयज सा महक फ़िज़ा में बिखरा रहे दिन-प्रतिदिन 
ग़र देते लोबान का तुम सोंधापन आकंठ लगाते निशदिन ।

चाँद पर होगा घर अपना करेगा सूरज भी मेहमाननवाजी 
बिछाओ चौपड़ की कोई भी बिसात हम जीतेंगे हर बाजी ।

जल,वायु,अवनि,अंबर अपना सपना हमसे ही ज़माना हो 
हम नहीं ज़माने से अभिलााषा जग हम पर ही दीवाना हो ।

हमसे रौशन शफ़क़,हमारे केतन को नस्तक विश्व करेगा 
जो साख ढहाया हिंद के गौरव की जल आके यहाँ भरेगा ।

हम विश्व पटल पर उभर रहे हैं नव युग की लाली बनकर 
तरल,विनम्र हैं मगर डटे वलिष्ठ,साहसी,बलशाली बनकर ।

काल चक्र कृपालु हमपर विश्व का प्रतिनिधित्व हमीं करेंगे 
नित उत्थान के डगर अग्रसर दुनिया का नेतृत्व हमीं बनेंगे ।

हमें विश्व से करना मुकाबला सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी
जहान से लोहा मनवाना नहीं है जग में हम सा कोई सानी ।

पार्श्व में तारे अम्बर के झण्डा शान से अन्तरिक्ष लहराएगा
ताज विश्वगुरू का शीर्ष हमारे जग जय भारत जय गायेगा ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

सोमवार, 18 अक्तूबर 2021

लॉकडाउन की तन्हाई पर कविता

गुमसुम सी है सुबह,सुनसान शाम आजकल 
ख़बरदार मेरी तन्हाई में न डाले कोई ख़लल ।

करीब मेरे बेहिसाब ख़यालों के आशियाने हैं 
दिल के बन्द कक्षों में कई यादों के ख़ज़ाने हैं
इसीलिए तन्हाईयां मुझे तनहा होने नहीं देतीं
जगाकर रखतीं रात भर कभी सोने नहीं देतीं ।

मुझे भी हो गई अकेलेपन से मुहब्बत इतनी
भाईं नहीं किसी की भी नजदीकियां जितनी
ख़ुशी ना उदासी बैठे हैं ख़ामोश सुबहो-शाम
लगने लगीं सुखदायिनी भी तन्हाईयां कितनी ।

फिर पुराने मौसम आ गये लौट के तन्हाई में 
अपनों से बिछड़ना दर्द,ग़म जख़म जुदाई में
जो बीता,गुजरा लिखा मन बहला लिया मैंने
और तन्हाई में तन्हा ही जश्न मना लिया मैंने ।

विरां वक़्त मग़र हैं बिचरते माज़ी के कारवां 
मुद्दतों बाद भी महसूती आज भी वही समां
अतीत के सुरंगों में संजो रखी जो असबाब
मेरी तन्हाईयां उनसे ही गुलजार औ आबाद ।


असबाब--सामान,वस्तु
सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह



रविवार, 17 अक्तूबर 2021

" बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें "

वो जो आए तो आई चमन में बहार
सुप्त कलियाँ भी अंगड़ाई लेने लगीं
चूस मकरंद गुलों के मस्त भ्रमरे हुए
कूक कोयल की अमराई गूंजने लगीं ।

फिर हृदय में अभिप्सा उमगने लगीं
नयन में चित्र फिर संजीवित हो उठे          
मृदु स्पन्दन अंग की उन्मुक्त सिहरनें 
पा आलिंगन पुन: पुनर्जीवित हो उठे ।

स्वप्न पलकों के आज इन्द्रधनुषी हुए
निशा नवगीत सप्तस्वर में गाने लगी
हृदय के द्वारे मज़मा आह्लाद के लगे
चाँदनी और शोख़ हो मुस्कराने लगीं ।

अधर प्यासे वो सींचे अधर सोम से 
मन के अंगनाई शहनाई बजने लगी
बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें
भोर की तत्क्षण अरुणाई उगने लगी ।

फिर से बेनूर ज़िन्दगी महकने लगी 
जब से ख़ुश्बू उनकी घुली साथ है
हरसू लगने लगीं अब तन्हाईयाँ भी
उर घुला मधुर मखमली एहसास है

फासले हुए ऐसे नदारद ज़िन्दगी से 
खुशनुमा-खुशनुमा हर पल आज है
जब से आए हैं वो वीरां ज़िन्दगी में
तब से सारा शहर लगता आबाद है,

भयभीत होती नहीं हो घनेरा तिमिर
चाँद सा हसीं महबूब का अन्दाज़ है
उनसे रूठना भी अब ना गवारा लगे 
बाद अरसे के सुर को मिला साज है । 

हर आहट पर उर के ऐसे हालात हैं
लगे उर्वी से मिलने उतरा आकाश है
मेरी आकुलता को अब तो विराम दो
चौखट थामें खड़ी आतुर भुजपाश हैं ।

अभिप्सा--प्रबल इच्छा, गात--देह

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

इन्तज़ार और याद पर कविता " आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "

" आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "


सूरज की तप्ती दोपहरी चाँदनी सी शीतल रात 
बीतीं जाने कितनी भोर संध्याएँ बीते कित मास ।

अब तो हो गई है इंतिहा आँखों के इन्तज़ार की
लगता बिना तेरे मैंने कितनी शताब्दी गुजार दी
हर साँझ जला रखते दृग,पथ उम्मीदों का दीया
बुझा अश्क़ों की वर्षात से मिज़ाज को क़रार दी ।

निश-दिन भींगती तेरी यादों में बरसात की तरह
वह कशिश कहाँ बरसात में तेरी यादों की तरह 
यादें भी क्या बला  रखतीं बैर आँखों की नींद से
तोड़ देतीं दिला यादें निर्दयी यादों को उम्मीद से ।

मुहब्बत में बिछड़ने का ग़म बस मुझे होता क्यूँ
दर्द अनुभूतियों का मुझ सा नहीं तुझे होता क्यूँ
जैसे बिताती बेचैन रातें बिन तेरे तन्हाईयों में मैं
वैसी ही बेचैनी का अहसास नहीं तुझे होता क्यूँ ।

कभी बोये थे मेरी आँखों में तुम्हीं ख़्वाब सुनहरे
कभी मंडराए थे भ्रमरे सा कैसे भूले साँझ सवेरे 
अपने ज़ुल्फ़ के पेंचों में कर गिरफ़्तार बाज़ीगर
कैसे किया देख हाल आके डाल आँखों में बसेरे ।

कभी बन पवन का झोंका  खेल जाते गेसुओं से  
कभी कर जाते पलकें नम बरस नैन के मेघों से 
जाने किस भरम में रखी संजो यादों की सम्पदा
बिसराने का करूं यत्न  रूठ दिल नहीं धड़कता ।

क़ाश तेरे फ़ितरत सी होतीं यादें भी तेरी बेवफ़ा
आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा
दिल के चौखट न जाने क्यूं लगा न पाती बंदिशें
कभी आओगे इसी आस में खोल रखी दरवाजा ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                   शैल सिंह

शनिवार, 19 जून 2021

कविता " यादें बचपन की "

                   " यादें बचपन की "


अभी तक है घुली नथुनों में सोंधी ख़ुश्बू गांव की   
याद छत पे सोना कथरी बिछा धूल भरे पांव की ।

बारिशों में भींगी मस्ती क़श्ती कागज की बहाना 
गर्मियों की चाँदनी रातें बिछी खाटें खुला आँगना
शरारतें,नदानियां,रुठना,मनाना खिल्ली ठिठोली
याद बालेपन का घरौंदा साथ सखियों का सुहाना ।

खांटी दूध,दही,छाछ,अहरे की दाल चोखा भउरी
ज़ायके घुघुनी रस के रसदार तरकारी में अदउरी
लुत्फ़ खीरा ककड़ी का मकई के खेतों का मचान 
भूली नहीं मेलों की चोटही जलेबी,लक्ठा,फुलउरी ।

कारे मेघा पानी दे घटा से बरस जाने की मनुहार 
माटी में लोट कहना,साथियों के संग की तकरार 
आलाप आल्हा-ऊदल का रासलीला,मदारी खेल
कहाँ गईं वो चीजें  बाइस्कोप,नौटंकी की झन्कार ।

दूसरों के बाग़ों से टिकोरा तोड़ना भरी दुपहरी में 
झगड़े कुट्टी,मिट्ठी करना उंगलियों की कचहरी में
अब क्यों बचपन जैसी सुबह और शाम नहीं होती
मस्ती,हुड़दंग,होंठों पर अल्हड़ मुस्कान नहीं होती ।

हमजोली संग मिल गुड्डे-गुड़ियों का व्याह रचाना
आँखों में जीवन्त है आज भी बचपन  का जमाना
चिंता ना फिकर रंज ,द्वेष कितने न्यारे थे वो दिन 
लौटा दे कोई बचपन दे-दे वो सामान सब पुराना ।

अहरे--उपले और गोहरे की आग 
अदउरी--बड़ी,कोहड़उरी
सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह

सोमवार, 17 मई 2021

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता पर कविता "

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता "



ऐसी विभीषिका से  वबाल मचाई हो कॅरोना
कैसी विश्वव्यापी व्याधि तूँ दुसाध्य सांस लेना ।

किन गुनाहों की मिल रही सज़ा ज़िन्दगी को
कि अब ज़िन्दगी ही दे रही दग़ा ज़िन्दगी को
हवाएं भी खफ़ा हो ज़ुल्म ढा रहीं हैं सांसों पर 
एवं ख़तरनाक हो क़हर ढा रहीं हैं आँखों पर ।

जाने कब तक चलेगा मौत का ये सिलसिला
तुम्हारी बेग़ैरत करतूत से ज़िन्दगी को गिला
दुनिया सहम गई है देख जनाज़ों का कारवां 
शंकित शवों की संख्या से मरघट भी पशेमाँ ।

हो वैरी का जैविक वार या प्रकृति हुई ख़फ़ा
कि महाप्रलय पे तुले धर्मराज कर रहे ज़फ़ा
विस्मित हूँ सांसों के ,अकस्मात् थम जाने से
सृष्टि बेबस निरूपाय उचित उपचार पाने से ।

जो किया कल के लिये संचय न काम आया
कांपें स्वजन भी छूने से ऐसी अस्वस्थ काया
कांधे भी मुनासिब नहीं बेसहारा सी मृत देह
थरथराती देख रूह औषधालयों पे भी संदेह ।

लिपट कर भी ना रो पाएं ऐसे छटपटाते प्राण
बेअसर उपाय सारे जो भी सभी ने किये त्राण
चाँदी हो गई हरामख़ोरों की इस महामारी में
ज़िन्दगी,धन से गये मज़लूम दुर्बल लाचारी में ।

पशेमाँ--शर्मसार,लज्जित
त्राण--रक्षा,बचाव

सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह

गुरुवार, 6 मई 2021

कोरोना की तीसरी लहर

कोरोना की तीसरी लहर 


और कितना प्रकोप ढाओगी 
कितनी वर्जनाएं लगाओगी
कोहराम मचा है चारों ओर 
तीसरी लहर का और है शोर ,

कितने घोंसले उजड़ गये 
कितनों के सपने बिखर गये
कितनों का संबल छीन लिया 
कितनों को अदृश्य हो लील लिया ,

सारी कायनात लग रही है विरां 
छेद रही मर्मभेदी करूणा है सीना
उन्मुक्त हँसी अधरों से गायब 
सब कुछ जैसे लग रहा अजायब ,

किस अमोघ अस्त्र से होगी पस्त 
सारी दुनिया हो गई है तुमसे त्रस्त
कौन सा दिव्यास्त्र चलाया जाये
आतंकित,भयभीत सभी दिशाएं ,

फ़जाओं में पसरा गहरा सन्नाटा 
थमा-थमा कोलाहल दे झन्नाटा
आवागमन पर छाया घोर कुहासा
भाग रहे सब जब कोई खांसा ,

निस्तेज हुई है कांति मुखों की
ऐसा वज्र गिरा दु:खों की
प्रगति पर विराम लगा दी
सबका प्रवेश वर्जित करा दी ,

कितना बरतें एहतियात हम
कितना सतर्क रहें बता हम
किसकी कितनी सुनें सलाह
क्या हालत हो गई या अल्लाह ,

जी मिचले कड़वा काढ़ा पी भाई
नहीं होती कारगर कोई दवाई
किसके सम्पर्क से रहें अछूत
लगे ज़िन्दे इंसान भी कोई भूत ,

कैसा अज़ाब ढाई हो कोरोना
ऊफनवा रही हो जाबा पहना
दहशत से डरा-डरा है मन
किस निरोध से हो तेरा शमन ,

क्या निस्तारण तेरा तू ही बता
क्या रहेगी जहाँ में ऐसे ही सदा
मानवीयता पर भी ग्रहण लगा
रहा ना अब कोई किसी का सगा ,

तेरे चक्रव्यूह को भेदना होगा
तेरे दु:साहस को तोड़ना होगा
ग़र तुझसे बची रह गई ज़िन्दगी
विश्व कल्याण लिए करेंगे बन्दगी ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                  शैल सिंह

मंगलवार, 4 मई 2021

याद पर कविता " पराई हो गईं हैं सांसें मुझसे "

मत ख़लल डालो ज़रा ठहरो 
रुको सांसों चलो धड़कनों आहिस्ता 
खटका रही कुण्डी दिल की,किसी की याद
कहीं इस शोर से रूठ जायें न मेरे ख़्वाब आहिस्ता । 
 
कैसे करें सरेआम शरम आये
लगा चाहत का रोग बसे तुम रूह में
दवा,दुआ ना आये काम कैसी व्याधि है यह  
लगे श्वांसों की ध्वनि बैरन जबसे तुझमें मशरूफ़ मैं । 

वे मधुर कम्पन छुवन के तेरे 
करें झंकृत जब याद आ तन-मन को 
खिल उठे उर कचनार सा जैसे खड़े सम्मुख 
ना जाने कैसा रिश्ता है जो महका जाता चमन को ।

परायी हो गईं हैं साँसें मुझसे 
धड़कन बन धड़कने लगे तुम जबसे
नज़र आते नहीं नयनपट पर रैन बसेरा कर 
मुस्कुरा निद्रा मेरी आँखों से चुराने लगे तुम जबसे । 

सर्वाधिकार सुरक्षित
                  शैल सिंह




शनिवार, 24 अप्रैल 2021

'' कोरोना पर कविता ''

कोरोना पर कविता 

हर ओर है पसरा सन्नाटा 
चहुँओर ख़ौफ़नाक है मंज़र 
मची तबाही शहर गली में 
इक वायरस ने घोंपा है ख़ंजर , 

कारागृह हो गया है घर 
क़ैदी भाँति क़ैद हुए सब घर में 
ग़ुम हुईं रौनक़ें बाज़ारों की 
फासले बना रह रहे सब डर में ,

विरक्ति सी हो रही चीजों से 
नीरस सा हो गया है मन 
इंसा इंसा के काम ना आता 
धरा रह जा रहा दौलत औ धन , 

ऐसा संक्रामण का रूप भयंकर 
हर व्यक्ति संदिग्ध सा लग रहा 
मानवों को लील रही महामारी  
श्मशान लाशों के ढेर से पट रहा ,

अलसाई सी सुबह लगे 
लगे तन्हा-तन्हा सी शाम 
सांसों की डोर है डरी-डरी 
अवरूद्ध पड़े जा रहे सब काम , 

छाई सर्वत्र उदासी ख़ामोशी 
भयावह सी लगती नीरवता 
कब काल आ भर ले आग़ोश में 
हर पल इस संशय में है कटता ,

देख दारुण सी व्यथा जगत की 
करुण क्रन्दन सुन कर्ण फटे 
ऐसी दहशत फैला रखी कोरोना 
कि अपने भी सम्पर्क से परे हटें ,

ऐसी आपदा विपदा में भी 
कोई किसी के काम ना आये 
असहाय,लावारिश सी लगे ज़िंदगी 
मौत की सौदाग़र नित पांव फैलाये। 

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                शैल सिंह 
 
 

 






मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

प्रेम पर कविता '' चाँद नभ का ना बन सताओ मुझे ''



किस क़दर डूबी हूँ प्यार में मैं तेरे 
हो कर वाक़िफ़ मगर हो यों बेख़बर 
क्या जानो मज़ा इश्क़ के नशे का  
दिखता सूना हृदय भी रंगों का नगर ।

मेरे हर जिक़्र में नाम लब पर तेरा 
इस तरह तुम बसे हो जाँ औ ज़िग़र
संग मेरे सफर में चलो तुम अगर
हसीं हो जायेगा हर कदम हमसफ़र ।

ग्रन्थ लिख डाले मैंने कई प्यार के 
पढ़कर भी अगर देख लेते भर नज़र 
करते मंथन अगर वेदना सिंधु का  
नैना बह जाते तेरे भी झर-झर निर्झर ।

बीती रातें कई मेरी करवटें बदल 
नर्म बिछौने पर ना नींद आई रात भर
पीर का हिस्सा बन विरह में पगी 
मैं बरसात में भी जलती रही उम्र भर । 

पतझड़ सा जीवन चमन हो गया 
बहारें आईं गईं कितनी रहीं बेअसर 
चाँद नभ का ना बन सताओ मुझे 
चाहत आओ न नैनों के आँगन उतर । 

मैंने माना कि मौन प्रेम मेरा रहा 
निठुर तेरी भी रही प्रीत ऐ मीत मगर 
कृष्ण के मीरा सी मैं दीवानी बन
हुई लहरों से टकराती नैया सी जर्ज़र ।

किस क़दर डूबी हूँ प्यार में मैं तेरे 
हो कर वाकिफ़ मगर हो यों बेख़बर......

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                शैल सिंह 
 




मंगलवार, 30 मार्च 2021

ज़िन्दगी पर कविता

उम्मीदों से भरा जियो ज़िंदगी का विहान
आसमान से ऊँचा रखो सपनों की उड़ान
उठा करो गिर-गिर कर हिम्मत बटोर कर
हर पल बिताओ ख़ुशी से बांहों में भरकर

मुसीबत के बादलों को हौसलों से छांट दो
मुश्क़िलों की खाई मुस्कुराहटों से पाट दो
सीखना हम सबको साथ वक़्त के चलना
नदी के जैसे कल-कल राह बना के बहना

फैसला तक़दीरों का क्या ये लकीरें करेंगी
ग़र है जज़्बा जीत का मुकाबलों से डरेंगी
भले दूर हो मंज़िल कदम मगर ना रोकना
पूरा करना मकसद बस सफ़र का सोचना

ज़िन्दगी को ख़ुद के  मुताबिक जिया करो
जो चीज हो पसंद उसे हासिल किया करो
लौट कर ना आने वाला बीता हुआ लमहा
उम्र यूं ही गुजर जायेगी हो जाना है तनहा

सिर्फ सांस लेना ही नहीं ज़िंदगी का काम
ख़्वाब,उम्मीदें ही ना हों तो ज़िन्दगी हराम
जितने दर्द,क़र्ज़,फर्ज़ हमारी जिन्दगी में हैं
उतनी वंदना की सूची रब की वन्दगी में है ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
            शैल सिंह

मंगलवार, 2 मार्च 2021

" कलम से गुजारिश "

           कलम से गुजारिश


अनकहे भावों को शब्दों में उकेरकर  
प्रिये पोरों लिख दो आँसुओं में भींगोकर
खेलने दो शब्दों से भावनाओं के उफ़ान को 
रख दो ज़ुबां ख़ामोशी की कागज़ों पे खोलकर ।

कैसे गुजरता है वक़्त तनहा बता दो
बहकते अक्षरों को मोतियों सा सजा दो  
जिन क्यारियों में बोये कभी ख़्वाब हम हसीं 
मिली तन्हाईयों की तोहफ़े में दहकती सी जमीं ।

ख़ामोशियों,तन्हाईयों के बाज़ार में
भीड़ में हजारों की निग़ाहें तुम्हें ढूंढ़तीं
अहसासों की दुनियां में छाई बस वीरानियाँ
कहना हर अजनवी से पता तेरा बावली पूछती ।

ज़िन्दगी के पन्नों के सारे ईबारत
लिखो क़लम तुझे तो हासिल महारत
दो पल के मोहब्बत में गुनाह कैसा था हुआ
कि धड़कनों के ही साजो-सामां हो गये नदारद ।

जीने में ना मरने में तेरे इन्तज़ार में
गुजारती हूँ कैसे शाम और रात का समां
अभी तक हैं दिल में महफ़ूज़ जो निशानियां
सहेज कर उसे हैं बैठे चैन और करार हम गवां ।

तुझे ही ज़िन्दगी ने बस तवज्ज़ो दिया
बेफ़िकर हो मुझको तुमने ही तन्हा किया
गुज़रे मौसमों का मंजर मेरी आँखों में तैरता 
लिखना बिन तुम्हारे ये शहर है लगता उदास सा ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह



शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

कविता 'वसंत पंचमी' पर

   कविता        'वसंत पंचमी'   पर

आओ वसंत पंचमी पर्व मनायें प्रकृति ने ली अंगड़ाई है
वासंती परिधान का जलवा चहुं ओर खिली तरुणाई है।  

मन रंगा वसंती रंग में और रंग गई सगरी जहनियां
झूर-झूर बहे मलयज का झोंका ऋतुराज करें अगुवनियां ,मन रंगा  .... |

चन्दा लुक-छुप करे शरारत चकोर निहारे चंदनियां
मधुऋतु की शुभ बेला,पल्लव,बेली ताने पुष्प कमनियां ,मन रंगा  .... |

पपिहा,कोयल,बुलबुल चहकें रूम-झूम नाचे मोर-मोरनियां
नवल सिंगार कर प्रकृति विहँसे वन भरें कुलाँचे हिरनियां ,मन रंगा  ….| 

मद में महुवा रस से लथपथ अमुवा मऊर बऊरनियां 
निमिया फूल के गहबर झहरे हरियर पात झकोरे जमुनियां ,मन रंगा  ....|

हरषें बेला,चमेली,चंपा भंवरा गुन-गुन गाये रागिनियां 
पीत वसन पेन्हि ग़दर मचाये सरसों चढ़ी कमाल जवनियां ,मन रंगा  ....| 

घर ठसक से आये वसंती पाहुन सतरंगी ओढ़ी ओढ़नियां 
पतझर सावन सा मुस्काये बोले कू-कू कोयल पुलकित वनियां ,मन रंगा  ....| 

टेसू,केसू,ढाक,पलास पल्लवित,रूप अभिनव धरे टहनियां  
लावण्य टपकता अम्बर से बावरी धरा सज-धज बनी दुल्हनियां ,मन रंगा  ....|

पीतवर्ण कुसुमाकर,रक्तिम गाँछें,किंशुक कहें कहनियां  
चहुँदिशा सुवासित पराग कण से सिन्दूरी भोर किरिनियां ,मन रंगा  ....| 

स्निग्ध हो गई बगिया सारी फूले नहीं समाये मलिनियां 
किसलय फूटे पँखुरियों से अधखिली कलियाँ हुईं सयनियां ,मन रंगा  ....| 

गेंदा,गुलाब,जूही निकुंज की मखमली विलोकें चरनियां 
नथुनों घोले सुवास मौलश्री बूढ़े पीपल की करतल ध्वनियां ,मन रंगा  ....|

ठूंठ के दिन बहुराई गए पछुवा भई छिनाल दीवनियां
आँगन विरवा तुलसी मह-मह रसे-रस बहे पवन पुरवनियां ,मन रंगा  ....| 

फगुवा का आग़ाज कुसुम्भी रंग रंगी पिया विरहिनियां 
आयेंगे परदेशी बालम सखी हो लेके नथिया साथ झुलनियां ,मन रंगा  ....| 

मथुरा ,वृंदावन ,बरसाने ,बजे ब्रज नन्दगांव पैंजनियां   
अबीर,गुलाल धमाल मचा फाग गायें अल्हड़ ग्वालनियां ,मन रंगा  ....| 
                                                                                     
                                                           'शैल सिंह'

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

काश इन हर्फों में आवाज होती


          काश इन हर्फों में आवाज होती   

सहसा क्या हुए उनसे रूबरू 
शर्म से सुर्ख हो गये रूख़सार मेरे
रौनक छा गई था बड़ा खुश़्क आलम
आ गया शहंशाह ख़्वाबों का दरबार मेरे
शोख लटें चूम झुकी पलकों से कहने लगीं
देखो नजरें उठा आए अंजुमन में दिलदार तेरे ।

तुम्हीं से हसीं थी मेरी ज़िन्दगी
तुम्हीं बन ग़ज़ल थे मचले अधर पर
हुई आज खण्डहर सी जीर्ण हालत मेरी
क्यों गये तन्हा छोड़ मरूस्थल में सफर पर
आजा हर सवालों का हल बनके दहलीज मेरे
देखे एहसासों का ताजमहल राह ऐ अजीज मेरे ।

माना जुदाई में तुम बिन मरे ना
पर तन्हाई में भी तो जी भी सके ना
मुझ जैसे तड़पकर मोहब्बत में तो देखो
अश्क़ बहा भी सके ना और पी भी सके ना
तुझे भूल जाने का फन भी तुम्हीं से सीख लेते 
मगर जज़्बात मेरे तेरे अन्दाज़ सीख भी सके ना ।

काश इन हर्फ़ों में आवाज होती
मेरे अल्फ़ाजों की तुम सदा सुन लेते
करें बेचैन यादें बीते लम्हों को याद कर
यही बेकरारी तुम भी अहसासों में गुन लेते
कितना उचाट बिन तेरे मेरे ज़िन्दगी का दायरा
तुम भी करके बंद आँखें मुझ सा ख़्वाब बुन लेते ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह


शुक्रवार, 22 जनवरी 2021

पुलवामा काण्ड पर लिखी पुरानी कविता

मौजूदा हालात पर

सर  बांध  तिरंगा  सेहरा  माँ 
कर  दुधारी   तलवार   थमा 
फौलादी  बाँहें   मचल   रहीं 
उबल रहा जिस्म में लहू जमा ।

माथे  तिलक  लगा विदा कर
प्रण है  रण में जाना  मुझको 
बैरी  दुश्मन  का  शीश  काट    
चरणों में  तेरे चढ़ाना  मुझको ।

चीत्कार रहा है सिहर कलेजा
पिता,पति,पुत्र  खोया है वतन
घोंपा है कायरों ने पीठ में छुरा 
शांति,वार्ता के सब व्यर्थ जतन ।

बूंद-बूंद कतरे-कतरे का देखना
लूंगा हिसाब जाहिल भौंड़ों का 
खौल रहा है घावों का गर्म लहू  
करूंगा घातक वार हथौड़ों का।

शैल सिंह

रविवार, 17 जनवरी 2021

नव वर्ष पर कविता

   नव वर्ष पर कविता


नवल वर्ष है स्वागत तेरा 
लाना जीवन में नया विहान
नई स्फूर्ति,नये जोश,आनंद से 
भरना नई पतंगों में नभ नया उड़ान ।  

नवल वर्ष हो मंगलमय
बीते वर्ष ने गाया मंगलगीत
अम्बर ने बरसाया फूल हर्ष से
भर अंकवार बसुंधरा ने लुटाया प्रीत ।

नई भोर की नई किरण
सूरज धूप का सेहरा बाँधे
धरा बनी सज-धज के दुल्हन
सधे-सधे पग देहरी धर शरमा लाँघे ।

ओ नव वर्ष के नव प्रभात
भरना नव उजास जीवन में
हर्षो-उल्लास से नूतन सौगातें
उलिचना आँजुरी भर-भर आँगन में ।
 
ऊँच-नीच का भेद मिटाना
प्रीत ज्योति जला हर उर में
हर पल सुनहरा सुखमय बीते
हिल-मिलके गायें नग़मा हम सुर में ।

आने वाला लम्हा मुबारक
मिटे रंजिश,नफ़रत के चाहत 
बीते वर्ष के खट्टे-मीठे अनुभव
बिसार करें हम सब सबसे मुहब्बत ।

मानवता का कर कल्याण 
अरपन रचना हर घर के द्वार
आत्मीयता की अलख जगाना
अद्भूत उन्नति,समृद्धि का दे उपहार ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

नव वर्ष मंगलमय हो

नव वर्ष मंगलमय हो  प्रकृति ने रचाया अद्भुत श्रृंगार बागों में बौर लिए टिकोरे का आकार, खेत खलिहान सुनहरे परिधान किये धारण  सेमल पुष्पों ने रं...