किसानों की बेबसी
क्यों बेमौसम बरस कर मेघा
तूने खेतों मैदानों पर क़हर बरपाई
बेवक़्त कर ओला वृष्टि की चौपट
बेवक़्त कर ओला वृष्टि की चौपट
कृषकों के परिश्रम की हाय कमाई ,
क्यों अकड़ में अन्धा हुआ रे मेघ तूं
मुर्दा हसरतों पर ऑंखें डबडबाईं
क्यों इतना प्रमत्त हुआ जा बरस वहाँ
जहाँ की बंजर धरा में फटी बिवाई ,
फसलें ही पूंजी थीं आधार स्वप्नों की
क्यूँ ना तेरी आत्मा,क्षति से कसमसाई
बेटी के हाथों की हल्दी थी जिसके बूते
उसी बल को तोड़ तूने किया धराशाई ,
उसी बल को तोड़ तूने किया धराशाई ,
गले फसरी लगाने को कर दिया विवश
कहाँ गई तेरी भलमनसाहत औ भलाई
झमाझम बरसकर हुआ संवेदनाविहीन
कैसे क़र्ज़ा चुकायेंगे तबाह कृषक भाई ।
गहने गिरवी,घर बंधक,मार उधारी की
दीन दशाहीन देख जरा शर्म नहीं आई
अनहद बरस तूने रंक,फकीर बना दिया
देख दुर्दशा अन्न की ओ मक्कार कसाई ।
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