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कोरोना पर कविता " ख़ौफ़ इंसा से इंसान खाने लगा है "

 " ख़ौफ़ इंसा से इंसान खाने लगा है " दूरियां बन  गई हैं  कारगर  दवाई इस क़दर डर अब  सताने लगा है , नन्हीं वायरस  ने क़हर ऐसा ढाया कि याद सबको ईशा आने लगा है घर की चारदीवारी महफ़ूज़ कोना ख़ौफ़ मानव से मानव खाने लगा है , गले जान के पड़ी आफ़त कोरोना लॉकडाउन तारीखें बढ़ाने लगा है समय औ हालात बदल गये इतने  वक्त ऐसा आईना दिखाने लगा है , समीपता कभी थी प्रेम का प्रतीक पृथकता के मायने  बताने लगा है इक दूजे का ग़र है परवाह करना ये फासला तरकीबें सुझाने लगा है , कोविद नाइन्टिन पांव ऐसे पसारा यत्न कैसा करें जी घबराने लगा है  जाने कब किसपे गिरें गाज़ इसके मुंह सन्नाटा भी तो चिढ़ाने लगा है , आबोहवा हुई है क़ातिल जहाँ की मौत जग में तांडव मचाने लगा है बेमोल ज़िन्दगी सम्भाले है रखना निकटता बड़ी वैरी बताने लगा है । सरवाधिकार सुरक्षित शैल सिंह