शुक्रवार, 24 जून 2022

मजदूरों के पलायन पर कविता

कॅरोना काल में मजदूरों के पलायन पर कविता

मख़ौल ना उड़वाइये राज बहुत देखे हैं

विरान कर गांवों को तुम गये थे शहर
सालों देखा ना मुड़ ली ना कोई खबर
शहरी चकाचौंध में मोड़ा मुँह माटी से
क्यों याद आने लगी अब उसकी डगर ।

तब तो सूने रूदन ना बूढ़े मां-बाप की
सुधि तक ना  लिये घर के  हालात की
रंच आई ना याद  रोटी माँ के हाथ की 
अब लौट रहे तोहफ़े लेकर जमात की ।

थी चादर जितनी पांव उतनी पसारते
संग परिजनों के मस्त ज़िंदगी बिताते
नौबत आती ना ऐसी ना तुम ऐसे रोते
नून रोटी खा ना सत्ता को ऐसे कोसते ।

दोष परिस्थिति का कुसूरवार करोना 
दोष किसी के किसी और पे मढ़ो ना
सबपे आफ़त एक सी दंश एक जैसा
कहो ना प्रशासन से उठ गया भरोसा ।

वस्तुस्थिति से वाक़िफ हर एक इंसान
एक सूक्ष्म वायरस से जूझ रहा जहान
गर्भवती महिलाएं  बूढ़े-बच्चे नौजवान
चल पड़े हैं पैदल जाने बिना समाधान ।

असमय हो गये कई हादसों के शिकार 
रह गई वक्त के सन्नाटे में दबी चित्कार
व्यवस्थायें तो हुईं मगर बिलम्ब हो गया
हताशा ने तोड़ा,सब्र का बाँध छल गया ।

जिन मुसीबतों ने किये घर से दर-बेदर
वो संग चलती रहीं राहों में ढाती क़हर
सह थोड़ी कठिनाईयाँ ना छोड़ते शहर
काज से न जान से हाथ धोते इस क़दर ।

परेशानियाँ तो आतीं जातीं धैर्य धर लेते 
जब लॉकडाउन खुलता सफ़र कर लेते
आख़िर सब हुआ सर पर घर उठा लिये 
कितना झेले संताप बिना सोचे चल दिये ।

लादे सिर पर गठरी जाने किस ठाँव की 
पोस्ट कर रहे छवि,छाले दिखा पांव की
कुछ तो सेंकें रोटी इस पर राजनीति की
कुछ कर रहे हैं बातें अक्सर अनीति की ।

परिवेश की मजबूरियां भी देख बोलिए 
औरों की तुलना में प्रशासन को तोलिये
मख़ौल ना उड़वाइये राज बहुत देखे हैं
सत्तर वर्षों ने ही निर्धन मजलूम पोसे हैं ।

किसी को जनाधार बढ़ाने की फिकर है
किसी को फिकर वोट खिसक जाने की 
प्रवासी श्रमिक बने हैं सियासत का मुद्दा 
किसी में मची होड़ है परवाह जताने की । 

जाने कितनी बनीं  योजनाएं इनके लिए
कितनी होतीं घोषणाएं रोज़ इनके लिये
कभी मानसिक गरीबी ख़तम होती नहीं
रोजी हेतु है निर्धारित काज सबके लिए ।

पलायन किये जां जोख़िम में ये डालकर   
त्रासदी का अभियोग शासन पे लगाकर  
मज़दूर तो सभी किसी ना किसी रूप में
कैसी कर रहे फ़ज़ीहत तोहमत लगाकर ।

दर्द हमें भी बहुत दृश्य राह का देखकर
इतनी संख्या दें कहाँ से खाद्यान्न पेट भर
दिए थे कभी ये भी  जख़्म गांव छोड़कर 
उसी निर्दोष गांव चले ये कैसे मर्ज़ लेकर ।

लौटने लगीं रौनकें देखो गांवों में फिर से
उमड़े सघन घटा हर्षित आँखों में घिर के
स्वागत  कर रहीं पगडंडियां बांहें फैलाए 
पुलकित अभिनंदन में सुमन राहें बिछाए ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

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