मजदूरों के पलायन पर कविता
कॅरोना काल में मजदूरों के पलायन पर कविता मख़ौल ना उड़वाइये राज बहुत देखे हैं विरान कर गांवों को तुम गये थे शहर सालों देखा ना मुड़ ली ना कोई खबर शहरी चकाचौंध में मोड़ा मुँह माटी से क्यों याद आने लगी अब उसकी डगर । तब तो सूने रूदन ना बूढ़े मां-बाप की सुधि तक ना लिये घर के हालात की रंच आई ना याद रोटी माँ के हाथ की अब लौट रहे तोहफ़े लेकर जमात की । थी चादर जितनी पांव उतनी पसारते संग परिजनों के मस्त ज़िंदगी बिताते नौबत आती ना ऐसी ना तुम ऐसे रोते नून रोटी खा ना सत्ता को ऐसे कोसते । दोष परिस्थिति का कुसूरवार करोना दोष किसी के किसी और पे मढ़ो ना सबपे आफ़त एक सी दंश एक जैसा कहो ना प्रशासन से उठ गया भरोसा । वस्तुस्थिति से वाक़िफ हर एक इंसान एक सूक्ष्म वायरस से जूझ रहा जहान गर्भवती महिलाएं बूढ़े-बच्चे नौजवान चल पड़े हैं पैदल जाने बिना समाधान । असमय हो गये कई हादसों के शिकार रह गई वक्त के सन्नाटे में दबी चित्कार व्यवस्थायें तो हुईं मगर बिलम्ब हो गया हताशा ने तोड़ा,सब्र का बाँध छल गया । जिन मुसीबतों ने किये घर से दर-बेदर वो संग चल...