नारी मर्म न जाना पुरुष जगत तुम
नारी मर्म न जाना पुरुष जगत तुम नारी मर्म ना जाना पुरुष जगत तुम निर्देश दिया तूं नारी धर्म निभाने की , कब झांककर अन्तर्मन देखा तुमने जिसकी सागर सी कितनी गहराई झाग सी उठती लहरें देखा,कभी न देखा शांत,स्निग्ध तरनी क्यों बौराई , बोलो कब दुराग्रह की थी मैं तुझसे दे दो ना लाकर मुकुट हिमालय का बोलो कब चाहा देवी की मूरत बन मूक शोभा बन कर रहूँ देवालय का , बांध कर तुमने मुझको वर्जनाओं में लक्ष्मण रेखाएं हैं खींच रखी कितनी तुमने जकड़के परिधि के जंज़ीरों में तय कर रखी हैं मेरी सीमाएं कितनी , क्या होतीं मर्यादायें कैसा संयम,की प्रतिपल मुझे बतलाते रहे परिभाषा छल करते आये धारण कर आवरण नहीं जाना क्या हृदय की अभिलाषा , मैंने तो द्विज के सातों वचन निभाए परिणय धागे में स्वयं को बाँधे रखा मेरे सतीत्व की अग्नि-परीक्षा लेकर भी,क्यूँ प्रमाण की करते रहे समीक्षा, मैं सम्पूर्ण समर्पण से वामांगी बन के जीवन,सेवा के यज्ञकुंड म...