शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

नारी मर्म न जाना पुरुष जगत तुम

नारी मर्म न जाना पुरुष जगत तुम 


नारी मर्म ना जाना पुरुष जगत तुम
निर्देश दिया तूं नारी धर्म निभाने की ,    

कब झांककर अन्तर्मन देखा तुमने
जिसकी सागर  सी कितनी गहराई                      
झाग सी उठती लहरें देखा,कभी न
देखा शांत,स्निग्ध तरनी क्यों बौराई ,

बोलो कब दुराग्रह की थी मैं तुझसे 
दे दो ना लाकर मुकुट हिमालय का
बोलो कब चाहा  देवी की मूरत बन
मूक शोभा बन कर रहूँ देवालय का ,

बांध कर तुमने मुझको वर्जनाओं में 
लक्ष्मण रेखाएं हैं खींच रखी कितनी
तुमने जकड़के परिधि के जंज़ीरों में
तय कर रखी हैं मेरी सीमाएं कितनी ,

क्या होतीं मर्यादायें कैसा संयम,की
प्रतिपल मुझे बतलाते रहे परिभाषा
छल करते आये धारण कर आवरण
नहीं जाना क्या हृदय की अभिलाषा ,

मैंने तो द्विज के सातों वचन निभाए 
परिणय धागे में स्वयं को बाँधे रखा 
मेरे सतीत्व की अग्नि-परीक्षा लेकर 
भी,क्यूँ प्रमाण की करते रहे समीक्षा,

मैं सम्पूर्ण समर्पण से वामांगी बन के
जीवन,सेवा के यज्ञकुंड में स्वाहा की
तुम अग्निसाक्षी नियम ताक़ पर रखे 
मैं तन जला दीये सी देहरी आभा की ,

मुख लगा मुखौटा खुद हजारों रंग के
उड़ा दी मेरे अटल विश्वास की धज्जी
व्यर्थ ही पूजती  रही तुझे देवतुल्य मैं
रख दी अस्तित्व बना  कागद की रद्दी  ,

लूटा दी स्नेह,ममता की  चिर तिजोरी
लूटा दिया वात्सल्य का सकल संसार
बहाकर प्रेम की अतल,अथाह नदी मैं
ढूंढ़ती फिर रही समग्र जीवन का सार ।


                                  शैल सिंह




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