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श्याम विरह में मीरा

सांवली सूरत मोहनी मूरत बसा कर मन में हाथों में ले एकतारा चली मीरा वृन्दावन में । लोक लाज औ राजसी वैभव छोड़ के मीरा तोड़ जहां के सब बंधन जोगन बन के मीरा प्रेम,भाव अथाह प्रकट कर वह भांति-भांति  प्रभु प्रेम में हुई दीवानी मस्त मगन हो नाची । जल बिन मत्स्य सी तड़पे दरश को आकुल  मर्म वियोग का ऐसा कि पपिहे सी व्याकुल इतनी अद्भुत अन्तर के,प्रेम पीर की गहराई  प्रभु प्रेम की रोम रोम में ऐसी कसक समाई । उर के स्पन्दन की पीर अविरल नैनों में नीर  आराध्य मिलन की लालसा चित्त रहे अधीर  मान हरि को प्राण आधार सौंप जीवन पूंजी  आकंठ विरह के रस में डूब वैरागन हो झूमी । विरह वर्णन कर अन्तर्मन् का गीत,भजन में  मधुर प्रवाह में सहस्त्र भाव पीरो जन मन में  अनन्त प्रेम की प्यासी,बनकर हरि की दासी  अनन्य भक्त श्याम की हो गई द्वारका वासी । मान माधव को स्वामी कृष्ण भक्ति में खोई  ऐसी उन्मुक्त प्रियतमा अन्यत्र न देखा कोई  प्रभु में लीन नाम ले,पी गई विष का प्याला  अमर होकर रच गई अमर काव्य की माला । शैल सिंह  सर्वाधिकार सुरक्षित   

बहुत खूबसूरत ऑंखें

कैसे-कैसे हुनर में माहिर गुलाबी मासूम ऑंखें तुम्हारी  मस्तानों की महफ़िल में चर्चे बहुत ऐसी ऑंखें तुम्हारी । खंजन नयन सी चंचल कमल-नयनी सी ऑंखें तुम्हारी  आकर्षक,सम्मोहक चपल मृगनयनी सी ऑंखें तुम्हारी  शोख़ चमकीली रंगीन नचाकर पुतलियां ऑंखें तुम्हारी  अद्भुत भंगिमाओं से सम्मोहित कर देतीं ऑंखें तुम्हारी । बहुत कुछ घटा सी बरस कह देतीं घनेरी ऑंखें तुम्हारी  बयां हो न जो लफ़्ज़ों से उसे बोल जातीं ऑंखें तुम्हारी  मदिरा छलकातीं मदिरालय सी मतवाली ऑंखें तुम्हारी  फ़रिश्ते भी बहक जायें नीम-बाज़ उन्मद ऑंखें तुम्हारी । शान्त समंदर सी विशाल झील सी नीली ऑंखें तुम्हारी  जाम छलका कर जातीं मदहोश शरबती ऑंखें तुम्हारी  कभी कर देतीं मंत्रमुग्ध काली करिश्माई ऑंखें तुम्हारी  कभी गहन काजल सजी लगीं रहस्यमई ऑंखें तुम्हारी । कभी राज गहरा छिपा कर जातीं मायूस ऑंखें तुम्हारी  कभी देतीं बता दिल का रास्ता,जुबां बन ऑंखें तुम्हारी  कितनों को कर जातीं घायल कटारी सी ऑंखें तुम्हारी  कभी चला खंजर,करा देतीं फ़साद हसीं ऑंखें तुम्हारी । दृगों की कश्ती में ऐसे भंवर...