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ग्राम्य जीवन पर कविता

                                  ग्राम्य जीवन पर कविता  किन शब्दों में बयां करुं बदरंग हुए मेरे ग्राम्य जीवन के यथार्थ दर्शन  को , जिस माटी में बचपन बीता आँगन की ओरी तले वर्षा का लुत्फ़ उठाये थे  चींटे को  पतवार बना  खेले कागज की नाव में   कीचड़ में सने घर आये थे , भूला नहीं  रस ऊख का,होरहा चने,मटर का,गाय-बैल,खेतों का टूटा मेढ़ झूला नीम डाल का, गाँव का मेला,घनी लटें लटकाये बरगद का बूढ़ा पेड़ , पहचान खोते गांव,टूटते-बिखरते रिश्ते,आधुनिकता में संलिप्त अपनापन  ना पूर्व सा परिदृश्य दिखा ना माई,काकी भौजी नामों वाला तृप्त सम्बोधन , जिस माटी के परिवेश में दांव-पेंच,छल-छद्म,धोखेबाजी,मक्कारी नहीं थी जहाँ ईर्ष्या,द्वेष,क्लेश,शोषण,बलात्कार,असामाजिक तत्व,गद्दारी नहीं थी , आज भौतिकवादी युग ने गुमराह कर मानवीय मूल्यों का ह्रास कर दिया वैमनस्यता,धूर्तता,चालबाजियों ने आदर्शवादी ढांचे को है ग्रास...