और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा
तन्हई की चादर ओढ़े
जब-जब होती हूँ तनहा शब्दों का सुन्दर वस्त्र धारकर
मानस पटल पर हो जाता आच्छादित
कवि मन पर गुजरा लमहा ,
झट कलम हाथ में गह लेती हूँ
भाव प्रवण बन जाती कविता
बाँध के अहसासों का सेहरा
कहीं अल्फ़ाज़ न धुँधले पड़ जाएं
और टूट ना जाये तन्हाई का पहरा ,
कविता की कड़ियों में गूँथ भर,
लेती हूँ जीवन का ककहरा
जी भर जी लेती जीवन अवसान तलक
वरना कहाँ समझ सका कोई भी
नर्म भावों का भाव सुनहरा ,
ज्ञान मेरा बस आत्मज्ञान बन
सिमट कर ख़ुद में ही है ठहरा
शौक़ शान संगीत बना लेखन
बन गयी लेखनी सम्बल मेरी
रिश्ते शिद्दत से निभा के गहरा ,
उम्र के दर पर छल ना जाये
डर है कभी ये पूँजी भी
और हो जाये धुप्प अँधेरा
ख़ुदा इस वैशाखी को देना बरक्कत
बल देना पोरों में आँखों में रौशनी लहरा ।
शैल सिंह
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