नशीली आंखों पर ग़ज़ल
" नशीली आंखों पर ग़ज़ल " नशीली आंखों के चर्चे सुना था बहुत क़शिश ऐसी कि देख बेसबर हो गया मदिरालय से बढ़ कर कमसिन नयन कुछ सोचा ना था इश्क़ मगर हो गया , झुक गयी पलकें जो शर्म से आपकी साक़ी सा छलका पैमाना तर हो गया यूं लड़खड़ाने लगे बिन पिए ही कदम मय सी आँखों का ऐसा असर हो गया , आपके शोख़ हया के शोख़ अंदाज़ ही ज़ुल्म ढाये कि ज़ख़्म-ए-ज़िगर हो गया इस अदा की रज़ा क्या कह भी दीजिए जिसपे दिल मेहरबां इस क़दर हो गया , समन्दर हैं दरिया या तेरे चश्म मयक़दा था ना मयकश मैं उन्मत्त मगर हो गया मस्त आँखों का आशिक़ बना ही दिया इतना बोलतीं हैं वाकिफ़ शहर हो गया , गुलाब की पांखुरी सा टहक लाल अधर क़ातिल मुस्कान मदहोश अगर हो गया जाने बेगुनाह दिल का होगा अंज़ाम क्या आँंखें संवाद कीं दहर को खबर हो गया , हब्शी आँखें लूटीं दिल का चैना औ सुकूँ लुटा आशनाई में क़रार मैं बेघर हो गया ज्यूँ बंद करूँ आँ खे...