रविवार, 30 अगस्त 2015

'' काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ''

काश कलम ग़र होती मेरी तलवार 

मन में जब-जब जितने फूटे ज्वार
बस हम बस कागज का पेट भरे
कितने लाचार,मजबूर ,विवश हम
जबकि खूँ में गर्मी जोश में है दम
कैसे करें क्षरण इन उल्लुओं के उत्पात
जो नहीं समझते सीधी-साधी बात
छल ज़मीर में इनके संस्कार बदजात
तभी तो करते बार-बार विश्वासघात
हमने बस ईमान का पाठ पढ़ा
और शांति,सद्भाव का यज्ञ किया
नैतिकता में बंधे रहे ,संविधान का मान किया
ताजीवन दूध पिलाते रहे संपोलों को
और खुद बार-बार विषपान किया
कितने हुए शहीद सपूत यहाँ के
कितने अभी और शहादत देंगे लाल
अभी और कितनी बार सहेंगे वार
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
हौसलों को मसि बनाकर
शब्दों को देती तीखी धार
{ दाँत पीसकर }कर देती बदज़ातों का बंटाधार
कोई अलगाववाद की बात करे
और कोई मांगे हमसे मेरा कश्मीर
सीने पर बैठकर दल रहे मूंग
छुपकर घाव कर रहे गम्भीर
अन्न,जल ग्रहण करें इस धरती का
रुबाई गायें पापी पाकिस्तान की
हमारे प्रेम सौहार्द को मटियामेट कर
जाल बुनें बैठकर गोद में हिंदुस्तान की
कोई अल्ला-मुल्ला के नाम पर
दे रहा समस्त जगत को पीर
काश कलम ग़र होती मेरी शमशीर
ऑंखें निकाल हाथ पे रखती,देती सीना चीर
कुछ कठमुल्लों कुछ बद्दिमाग़ों ने
कर दिया है क़ौम का नाम बदनाम
क्षिक्षा,समृधि,प्रगति की बातें दरकिनार कर
करते फिर रहे कत्लेआम सरेआम
अकल पर परदा डालकर अपने
कर दिया है विश्व का चैन हराम
विफल होती जा रही सभी वार्ता
अपमानित होते सभी प्रयास
घुसपैठिये राह हैं ढूँढ निकालते
पहरों के चाहे जितने लगे कयास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
और शब्द होते जैसे वृक्ष कपास
फाग सी विखेर देती रुई के फाहों को
विश्व में फैला देती नई उजास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ।

                                                शैल सिंह 

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