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इन्तज़ार और याद पर कविता " आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "

" आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा " सूरज की तप्ती दोपहरी चाँदनी सी शीतल रात  बीतीं जाने कितनी भोर संध्याएँ बीते कित मास । अब तो हो गई है इंतिहा आँखों के इन्तज़ार की लगता बिना तेरे मैंने कितनी शताब्दी गुजार दी हर साँझ जला रखते दृग,पथ उम्मीदों का दीया बुझा अश्क़ों की वर्षात से मिज़ाज को क़रार दी । निश-दिन भींगती तेरी यादों में बरसात की तरह वह कशिश कहाँ बरसात में तेरी यादों की तरह  यादें भी क्या बला  रखतीं बैर आँखों की नींद से तोड़ देतीं दिला यादें निर्दयी यादों को उम्मीद से । मुहब्बत में बिछड़ने का ग़म बस मुझे होता क्यूँ दर्द अनुभूतियों का मुझ सा नहीं तुझे होता क्यूँ जैसे बिताती बेचैन रातें बिन तेरे तन्हाईयों में मैं वैसी ही बेचैनी का अहसास नहीं तुझे होता क्यूँ । कभी बोये थे मेरी आँखों में तुम्हीं ख़्वाब सुनहरे कभी मंडराए थे भ्रमरे सा कैसे भूले साँझ सवेरे  अपने ज़ुल्फ़ के पेंचों में कर गिरफ़्तार बाज़ीगर कैसे किया देख हाल आके डाल आँखों में बसेरे । कभी बन पवन का झोंका  खेल जाते गेसुओं से   कभी कर जाते पलकें नम बरस नैन के मेघों ...