सदियों पुरानी तोड़ रूढ़ियां
आजाद किया है खुद को,
परम्पराओं की तोड़ बेड़ियां,
कुशल सफर क्षितिज तक का
दिखा दिया है जग को,
देखो हमको अबला कहने वालों,
सबल,सशक्त बना लिया है खुद को,
रोक नहीं सकतीं हमको
अब श्रृंगार की जंजीरें,
देखो हर कालम में नारी की
उभरती हुई सफल तस्वीरें
आंचल में हमारे जन्नत है
हम ममता की मूरत हैं
हमसे ही है सृष्टि सारी
रची हमने ये दुनिया खूबसूरत है।
शैल सिंह
ना मैं जानूं रदीफ़ ,काफिया ना मात्राओं की गणना , पंत, निराला की भाँति ना छंद व्याकरण भाषा बंधना , मकसद बस इक कतार में शुचि सुन्दर भावों को गढ़ना , अंतस के बहुविधि फूल झरे हैं गहराई उद्गारों की पढ़ना । निश्छल ,अविरल ,रसधार बही कल-कल भावों की सरिता , अंतर की छलका दी गागर फिर उमड़ी लहरों सी कविता , प्रतिष्ठित कवियों की कतार में अवतरित ,अपरचित फूल हूँ , साहित्य पथ की सुधि पाठकों अंजानी अनदेखी धूल हूँ । सर्वाधिकार सुरक्षित ''शैल सिंह'' Copyright '' shailsingh ''
गुरुवार, 8 मार्च 2018
महिला दिवस पर मेरी रचना
रविवार, 4 मार्च 2018
होली पर कविता--रोम-रोम हुए टेसू पलाश
होली पर कविता--रोम-रोम हुए टेसू पलाश
आया होली का त्यौहार
बरसे रंगों की फुहार
बहे ठगिनी बयार बड़े शान से
फागुन बरसाए गुलाल आसमान से ,
ग्वालबाल संग सांवरे
मधुर बांसुरी बजावें
नाचे ग्वालिनें अलमस्त
राधा बावरी हो गावें
लेकर ढोलक,झांझ,मंजीरे
चले पीकर भंग जमुना के तीरे
बरसे रंगों की फुहार
बहे ठगिनी बयार बड़े शान से
फागुन बरसाए गुलाल आसमान से ,
ग्वालबाल संग सांवरे
मधुर बांसुरी बजावें
नाचे ग्वालिनें अलमस्त
राधा बावरी हो गावें
लेकर ढोलक,झांझ,मंजीरे
चले पीकर भंग जमुना के तीरे
करें विश्राम कदम की छईंया
अल्हड़ सी करते मौज मस्ती
हुआ नगर-डगर सतरंगी
गढ़-गढ़ का आलम रक्ताभ
जहाँ रंभाती गोकुल की गईंया ,
अल्हड़ सी करते मौज मस्ती
मचाते हुड़दंग हुरियारों की
चली बस्ती-बस्ती,गली-गली
टोली रसिया गाते हुए यारों की ,
बैर,भाव,द्वेष भूला कर सब
बैर,भाव,द्वेष भूला कर सब
दूर मन के कर मलाल
रंग-बिरंग प्रीत के रंगों से
गालों मलें अबीर गुलाल ,
करें हास-परिहास सब सखियां
गहि-गहि मारें ऊपर पिचकारी
रंग-बिरंग प्रीत के रंगों से
गालों मलें अबीर गुलाल ,
करें हास-परिहास सब सखियां
गहि-गहि मारें ऊपर पिचकारी
उन्मत्त,उमंगों में डूब भिगोतीं
चोली,अंगिया,अंग मतवारी ,
हुआ नगर-डगर सतरंगी
गढ़-गढ़ का आलम रक्ताभ
मस्ती,रोमांच और उत्साह
अभिभूत करे अल्हड़ अंदाज ,
बहका मन वैरागी फागुन में
अभिभूत करे अल्हड़ अंदाज ,
बहका मन वैरागी फागुन में
संयम के टूटे सारे प्रतिबन्ध
रोम-रोम हुए टेसू पलाश
जोड़ वसन्ती हवा संग अनुबंध ,
रोम-रोम हुए टेसू पलाश
जोड़ वसन्ती हवा संग अनुबंध ,
कहें बुरा न मानो होली है बुढ़वे
मुँख दबा गिलौरी,नैनों के बान से
देख घर,आंगन,चौपाल में रौनक
झूमें धरती,फिजां अभिमान से ।
शैल सिंह
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
ईश्क़ में टूटकर बिखर जाना अगर ईश्क़ है
कैसे भूले गली तुम शहर की मेरे निशां अब तक जहाँ तेरे पग के पड़े हैं खुला दरवाजा तकता राह आज तक तेरा खिड़की पे पर्दे का ओट लिए अब तक खड़े हैं ...
-
नई बहू का आगमन छोड़ी दहलीज़ बाबुल का आई घर मेरे बिठा पलकों पर रखूँगी तुझे अरमां मेरे । तुम्हारा अभिनंदन घर के इस चौबारे में फूल ब...
-
“ ठंडी के मौसम पर कविता “ सर्दी तूं बड़ी बेदर्दी है लगती बर्फ़ से भी तूं ठंडी है धुंध में लिपटे सूर्य देवता नहीं किसी से हमदर्दी है , ...
-
रिमझिम पड़ें फुहारें जल की,बूँदें लगें सुखदाई बहुत सुहावन अति मनभावन सावन का महीना व्रत,त्यौहारों का पावन मास सावन मास नगीना । सुमधुर स्व...