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रिस्तों की परिधि में अपना ठिकाना

रिश्तों की परिधि में अपना ठिकाना  पढ़ना-लिखना किसी काम ना आया डिग्री बक्शा भीतर रखी सहेजकर ध्यान-ज्ञान हुशियारी सब धरे रह गए स्त्री धर्म का कड़ुवा मर्म ओढ़कर कभी-कभी विकल उसे एकाकीपन में निहार लेती फिर रख देती सहेजकर महकती कल्पना चहकती चेतना कभी-कभी कलम उठा लेती है और रच देती नवगीतों में अंतर्वेदना कोई ना जाने मेरे अक्षरों की दुनिया कौन निखारे मेरे मन्सूबों की कोठियां विचार,विवेक बुद्धि जैसी मीनारें भीतर ही भीतर दरक उठती हैं जब कोई करता गुणगान किसी का लहूलुहान हो जाती प्रतिभा की संजीवनी झनझना जातीं वजूद की दीवारें तौहिनिया श्मशाम के सन्नाटे जैसा चिर देती   ज़िंदगी शनैः-शनैः बीत रही काम के तले बस बनाते संवारते हुए घर,  बुहारती मन का विराट चबूतरा और निहारती निर्मल सपनों पर जमी गर्द और दूर-दूर तक देखती उन आयामों को जहाँ ना मैं ना मेरा वजूद ना मेरा नाम बस हिस्से में काम, मन में सबके लिए मंगल  कामना खटते रहने का नाम अपने हिस्से में रखना क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ ,इससे इतर मेरा...