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अक्टूबर 26, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

मैं सीपी के मोती जैसी

हमराह में साथी नहीं संगी कोई अपना भरे जो रंग गहबर सा अधूरा ही रहा सपना मिले मंजिल मेरी मुझको  अभिलाषाएं भटकती हैं  महत्वाकांक्षा रही सिसकती  उमर पल-पल गुजरती है , गगन के सितारों सी चमकने की कल्पना थी  जमीं पर पांव चाहत चाँद छूने की तमन्ना थी ।  अपनों ने दिखा दिवा सपना  कंचन सा विश्वास ठगा मेरा  खुद की धुरी के चारों ओर  बस डाल रही अब तक फेरा , घायल मन की व्यथा मिटा यदि कोई बहलाता  चाहे अनचाहे सपनों की यदि मांग कोई भर जाता ।  सागर से भरी गागर है  मन रीता-रीता सा ही  मोती सी तरसती तृष्णा  घर संसार सीपी सा ही , टूटे साजों पर गीत अधूरे किस्मत काश संवर जाए  चाहत पर चातक की शायद स्वाति की बूँद बरस जाए ।  कस्तूरी जैसी महक मेरी  ये जागीर न देखा कोई  असहाय साधना की राहें  ऐसी तरूण कामना खोई , घरौंदों को आयाम मिले कब किरण भोर की आएगी  कब कसौटियों पर खरी उतर शख़्सियत गर्द मचाएगी ।  विराट कलाओं क...

मन का सुखौना

मन का सुखौना कब नजरें इनायत फ़ना कब नज़र कब ख़ुशी लब हँसी क्या हमें ये ख़बर । अभी तक तो खिली धूप थी आँगने की बादलों ने चुबौली रुख़ घटा डालकर अभी मन का सुखौना ज्यों डाली ही थी ओदा कर दी घटा और भी झमझमाकर , कुछ सिमसिमाहट होगी दूर यह सोचकर भांपकर मिज़ाज़ मौसम का रुख देखकर मन की तिजोरी से सारा जिनिस काढ़कर दहिया लगाई ख़ुशफ़हमी दिल नाशाद कर ,  रुत बदलती है रंग पल में जाना ना था  रुख हवा का किधर हो कब जाना ना था धूप बदली की कितनी सुहानी लगी थी  ये खेल धूप-छाँव का दिल ने जाना ना था , ग़र अहसास होता फ़िजां के इस अंदाज़ का  साँसें महकी ना होती बहकी पुरवा ना होती  कैसे होते हैं शाम औ सुबह रूप के जान लेते  ग़र शमां को रौशनी की ऐसी परवा ना होती , फ़ुर्सत से मिली थी नज़र जो दो घड़ी के लिए  ख़ुलूस मिला उल्फ़त मिली दो घड़ी के लिए  मेरी महफ़िल में बैठ भी कभी दो घड़ी के लिए  देख अजनवी की तरह ही सही दो घड़ी ...