संदेश

अगस्त 10, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

भीषण अपराधों के मालिक तुम

भीषण अपराधों के मालिक तुम हे गर्वित निष्ठुर भगवान सुनो क्यों बैठ के लीला देख रहे तुम आँखें मूँद हिमालय की चोटी पर पत्थर दिल द्रवित नहीं होता क्यों  समाज के दयनीय करुण शोर पर , साधना अवहेला कर दी घायल सृष्टि रचने वाले ईश कहाँ तुम कैसे भाव अभाव से भरे हृदय में जहाँ इंसा इंसा का मोल ना जाने मर्यादाएँ लहूलुहान दाग़ दामन में , अर्चना दुहाई मन ना भाई निर्दय क्यों पाप-पुण्य की खींची रेखाएं सब तेरी ही मर्जी का खेल तमाशा जग जीवन त्रस्त,अस्त-व्यस्त है   क्या जा ने   पाषाणी तूं दुःख की भाषा , भीषण अपराधों के मालिक तुम तुम्हीं संतापों के निपुण रचयिता क्या कभी ग़ौर से देखा भी तुमने हादसों ,हत्याओं के कालसर्प को चीरहरण की चीखें वीभत्स दर्द को , कूटनीतिक व्यूह सब तेरी चाल का सांसों की आजाद तरंगे भय से बंदी चाँद-सूरज पर भी आतंकों का साया जीवन भी गिरवी तेरे हाथों विधाता  हिंसा के दावानल में भी तेरी माया , भेदभाव कर नर-नारी के अवयव देख शर्मनाक दृश्य अपनी करनी का तेरे बंदे ही डाका डाल रहे लाज पर रू...

ऐसा है हमारा वतन

ऐसा है हमारा वतन हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की गोदी में जिसकी खेलतीं हजारों जातियाँ रंग,भाषा,वेश की। हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की सोहबत में जिसके विहँसते हैं सदैव नदी रेगिस्तान रेत भी। हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की जहाँ मन्दिरों में गूँजे घण्टियाँ सुनाई दे मस्ज़िद अज़ान की। हमारे वतन के आगे भला क्या बिसात और देश की जहाँ ईसा को मिले मान हो सम्मान गुरु गोविन्द महान की।                                                                           माँ-बाप ,भाई-बहन ,पत्नी, बेटे-बेटी, गाँव की सीमा के प्रहरियों तुम्हें सलाम देश जहान की रख जान हथेली पे रखते लाज माँ के आन की तेरे बुते महफ़ूज गुलिस्ताँ,चमन हिंदुस्तान की । ''बन्दे मातरम'' ,''भारत माता की जय''                 ...

अव्यक्त हृदय के आँसू

अव्यक्त हृदय के आँसू  जब बड़ों में ही नहीं कोई बड़प्पन तो क्या सीखेगा रेशम सा बचपन । किसी ने संयम का तटबंध है तोड़ा और हृदय विदीर्ण किया है आज, मन छलनी कर ज्वाला भड़काई है  खण्ड-खण्ड करके रिश्तों का साज़ । ग़र दे नहीं सकता कोई किसी को दो मीठे बोलों की अमृत का बूंद हँसकर कटाक्ष कर कस फब्तियाँ ना और भी बनाये सम्बन्धों को ठूँठ । कहीं ख़ाक न कर दे अहंकार यह डर है अहंकारी का समूल विनाश कुछ सीख ले प्रकृति सौरभ से जो हरदम महकाती प्रतिकूल सुवास । कुछ अर्ध विक्षिप्त से अपने लोग हैं  सभी को नीचा दिखलाया करते हैं नसीहत उसी सुनाने वाले को खुद क्यों नहीं सुनने का माद्दा रखते हैं । सहने सुनने की भी इक सीमा होती जब हिम्मत की औक़ात बताने की क्यों तिलमिला कर आग बबूला हुए बहरूपिये हैं रंग बदलना आदत सी । अपने कुत्सित भावों का परिचय देते  सदा सभी पर गरल उँड़ेलते हरदम वह बहुरंगी अभिनय के वैभवशाली  सीख लें  जहाँ पियूष बरसते हरदम । क्यों आदर्श पुरुष बन जग सम्मुख ...