भीषण अपराधों के मालिक तुम
भीषण अपराधों के मालिक तुम हे गर्वित निष्ठुर भगवान सुनो क्यों बैठ के लीला देख रहे तुम आँखें मूँद हिमालय की चोटी पर पत्थर दिल द्रवित नहीं होता क्यों समाज के दयनीय करुण शोर पर , साधना अवहेला कर दी घायल सृष्टि रचने वाले ईश कहाँ तुम कैसे भाव अभाव से भरे हृदय में जहाँ इंसा इंसा का मोल ना जाने मर्यादाएँ लहूलुहान दाग़ दामन में , अर्चना दुहाई मन ना भाई निर्दय क्यों पाप-पुण्य की खींची रेखाएं सब तेरी ही मर्जी का खेल तमाशा जग जीवन त्रस्त,अस्त-व्यस्त है क्या जा ने पाषाणी तूं दुःख की भाषा , भीषण अपराधों के मालिक तुम तुम्हीं संतापों के निपुण रचयिता क्या कभी ग़ौर से देखा भी तुमने हादसों ,हत्याओं के कालसर्प को चीरहरण की चीखें वीभत्स दर्द को , कूटनीतिक व्यूह सब तेरी चाल का सांसों की आजाद तरंगे भय से बंदी चाँद-सूरज पर भी आतंकों का साया जीवन भी गिरवी तेरे हाथों विधाता हिंसा के दावानल में भी तेरी माया , भेदभाव कर नर-नारी के अवयव देख शर्मनाक दृश्य अपनी करनी का तेरे बंदे ही डाका डाल रहे लाज पर रू...