माटी के रंग
ये हकीकत है आज़ की ,
माटी से टूटा है नाता सभी का ,
सोंधी-सोंधी ख़ुश्बूओं से परे ,
बनावट के आवरण में
वास्तविक गंध को भूल जाना,
आज का वातावरण,समाज
एक ऐसा मुखौटा बन गया है
जैसे गुलदस्ते में सजे फुल सरीखा
खिले रहने के बनावटी अंदाज,
कैसा मुलम्मा चढ़ा लिया है ,
खाली उजाड़ होकर भी चेहरे पर ,
हँसी पर साधनों का खेप डालकर
अन्तर के आंदोलन का मातम मनाते हुए,
खोखला विद्रूप मन लिए
कॉस्मेटिक का मोटा लेप चढ़ा कर ,
अन्तर में माटी की गंध को
सीने से लगाये तड़पना ,
फलने-फूलने की अभीष्ट चाह
अपनी माटी को तलाशती ज़िन्दगी
क्या है असल ज़िंदगी की ख़ुशी का मानदण्ड
सब कुछ पाकर भी क्या खो दिया है
भौतिकता और आधुनिकता के उसूलों में,
कितने कृत्रिम हो गए हैं हम
कृत्रिमता हमें किस कदर आकर्षित कर रही है ,
स्थाई रस का अभाव
मौलिकता का मटियामेट होना ,
नैतिकता का पतन होना ,
कितने नैराश्य और निरंकुश हो गए हैं हम ।
इतने सारे गैजेट्स ,
संसाधनों के पालनों में झूलते हुए हंसी को तरसते ,
समूह की तलाश में
कभी-कभी कहीं-कहीं जंगलों के बीच में ,
कुछ खिलते हुए मेरे जैसे
पलाश के फूल नज़र आ जाते हैं
तो साथ में जी लेते हैं ,
जिंदगी भर के आनंद का अपार सुख ,
शायद फिर ये खिले पलाश मिलें या ना मिलें ।
प्रतिस्पर्धा की दौड़ में तरक़्क़ी के जोड़-तोड़ में ,
सपनों की उड़ानों का आकाश में दौड़ लगाना ,
छीनते जा रहे हैं हमसे ,हमारे आस-पास से ,
जीवन के मूल-मन्त्र ,
धरातल से जुड़ने की बजाय पैरों तले से
जमीं खिसकती जा रही है ,
हम और हमारा समाज खुद को
बिमुक्त कर लिए हैं अपनी माटी से ।
खुद में सिकुड़-सिमट कर
चिन्ताओं और बीमारियों को आमंत्रण दे रहे हैं ,
वास्तविक जीवन शैली की तलाश में
हम सहारा ले रहे हैं बनावटी नकली
तत्त्वों का ,लॉफ्टर चैनल ,आर्ट ऑफ लिविंग ,
शाम सुबह की सैर ,योगा के शिविर में शरण ,
डॉक्टरों की हिदायतें ,तमाम नुस्ख़े तो आज़मा रहे हैं ,
असल ख़ुशी की जड़-जमीं त्यागकर ।
आतंरिक ख़ुशी तभी सम्भव है
जब हम भावनाओं को अमली जामा पहनायें ,
ख़ुशी की असली दुनिया तलाशें
अपने में,अपने लोगों में ।
काश वही पुराना जमाना लौट आये
और दुनिया की आपाधापी ख़त्म हो जाये ।
पर यह अनमोल वस्तु तो
असंभव की रेखा पर उस पार ही छूट गई है ,
मन की भटकन और बेचैनी वहीँ सुस्ता रही है ,
जहाँ हमारी माटी का रंग है ,
आने वाले दिन और भी नई-नई बीमारियों का
समूह और समाज खड़ा करेंगे,
नई-नई तकनीकियों के साथ ,
डॉक्टरों की जमात के साथ ।
व्यस्तता और आपाधापी निगल रही है
मनोरंजन और ख़ुश रहने के नुस्खों को ,
छीन रहा बच्चों का बचपन ,
सुख,साधनों की शैय्या पर
बबूल ,गुलाब के काँटे भी बिछे है
जो शगल बन रहे अनेकानेक
अस्वस्थ सोच और मानसिकताओं के।
आज के सुख साधन भी कृत्रिम सुख दे रहे हैं
तभी तो कोई भी मन से आह्लादित नहीं दिखता ।
अफ़सोस …। शैल सिंह