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फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता

  फिर भी मन का प्यासा प्याला रीता ये कैसा मलाल है ज़िंदगी  कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी भीड़ में भी हूँ और तन्हा भी मन का ना कर पाने का मलाल  सब कुछ देखते समझते  स्थितियों की बेबसी का मलाल कला,दक्षता,ख़ूबी,हावी,हुनर,फ़न  को बेबसी की मृतशैय्या पर  कराहते देखने का मलाल संवार कर रखूँ तो भी बीमार निखारकर रखूँ तो भी बिमार  इन्हीं बेबसी के लम्हों की तड़प को  अपने लफ़्ज़ों से नवाज़ा है मैंने कविता,शायरी,गीतों,ग़ज़लों की  शक्ल और सूरत के रूप में अपनी भावनाओं को उतारा है मैंने बग़ावत करूँ तो तनाव में  चुप रहूँ तो तनाव में ये कैसा मलाल है ज़िंदगी  कि आज़ाद भी हूँ और बेबस भी एक-एक पल एक-एक दिन के रूप में ज़िन्दगी का थोड़ा-थोड़ा हिस्सा आँखों के सामने से निकलता जा रहा मन के भीतर कुछ टूटता रहा,कुछ कसकता रहा  मैं बिखरती रही आयु बीतती गई  ना मन का तम छँटा ना मन की आग बुझी बीते वक़्त को याद कर पछताने के लिए  मन को धैर्य से बाँध-बाँध अवसर गँवाती गई  बस कल्पनाओं की चादर तले नभ की चाह बाँधे आँचल में जीवन का लहराता हुआ सागर फिर भी मन क...