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अगस्त 21, 2022 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ख़िजाँ में फूल खिले ऐसा किया है दंगा

ख़िजाँ में फूल खिले ऐसा किया है दंगा सबके साथ सबके विकास का सुर में सुर मिला साथ चलने का न खाऊँगा न किसी को खाने दूँगा इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ते रहने का , इक देशभक़्त ने वीणा उठा लिया है  समूचा भारतवर्ष बदलने का जन-जन से आह्वान किया है संग-संग क़दम मिलाकर चलने का , दृढ़ संकल्प है उसने ठान लिया घर-घर नया सवेरा लाने को मन को ज़िद पर अड़ा लिया है घना अँधियारा दूर भगाने को  , वर्षों से कोने-कोने विष जो वातावरण में घुला हुआ था जिन संग हवाओं का दल भी खूब आकण्ठों डूबा हुआ था , इक देशभक्त फ़कीर दीवाना इन विषधरों से चला है टकराने इरादों में परिवर्तन का निश्चय ले देशद्रोही,गद्दारों को समूल मिटाने उलझा चल रहा काँटों से दामन काँटे भी पग उसके चूमने लगे हैं सत्तर सालों का मंज़र देखे नयन नये भारत का सपने बुनने लगे हैं , क़द्रदान अनेकों इस सच्चे हीरे के बड़े-बड़े धुरंधर हाथ मिलाने लगे हैं उसके हर फ़ैसले की कर सराहना देश के हर नागरिक मुस्काने लगे हैं , इक स्वप्न है उसने दृढ़ता से दुहराया  जड़ से समूल भ्रष्टाचार मिटाने क...

नज़्म ' जब से तोड़ा रिश्ता उससे हर ताल्लुक का '

जब से तोड़ा रिश्ता उससे हर ताल्लुक का याद कभी आये ना वो मेरे सपनों में भी सख्ती से दरबान पलकों को   ताक़ीद  कर दी कसम से लौटा दी   नफ़रत की  सूद सहित  पाई-पाई उसे भी ज़िक्र कभी छेड़ें हवाएं भी ना ताकीद कर दी कसम से जब से तोड़ा हर रिश्ता उससे ताल्लुक का खुद को  तन्हाई, गम ,उदासी से फ़ारिग कर ली कसम से मुद्दतों बाद मिला सुकून मेरी रूह को दिल की विरां महफ़िल फिर गुलजार कर ली कसम से कहांँ थी काबिल ही वो मेरे मिज़ाज़ के सच में   किस सांचे में ढाला था उसको ख़ुदा ने कसम से ।                                                            अगर ठान लो लक्ष्य हासिल है करना घूंट इंतजार का होता कड़वा बहुत है इंतजार इक दिन दिखाएगी मंजिल तुम्हारी । माना सफ़र इतना आसां नहीं है मगर राह तकती है मंजिल तुम्हारी अगर ठान लो लक्ष्य हासिल है करना मिलके रहेगी हर सूरत में मंजिल तुम्हारी कर्म और श्रम पे अपने ग़र है विश्वास इ...

समंदर पर कविता , ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके

समंदर पर कविता  ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके साहिल से टकरा मुड़ जाना शगल बस तेरा ऐ समंदर ये शरारत तुम्हारी अच्छी नहीं । रेत पर जो बनाए थे सपनों के घरौंदे चल दिए लीलकर तुम बदी की तरह ऊँची लहरों का रखो पास अपने गुमां बह सकते नहीं तुम जब नदी की तरह। कंठ तर कर सकते नहीं जब तुम नीर से जल के महानद में डूबे आकंठ किस काम के स्वाती की इक बूंद को सीप तरसा करे इतने विशाल होकर भी तुम किस काम के। आचमन भी जिस जल का दुष्कर लगे जिससे अभिषेक शिवालय का हो ना सके तेरी बादशाहत बस कायम लवण के लिए ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके । राज क्या है तुम्हारे विस्तृत साम्राज्य का जब-तब मचाती हलचल तेरी तह सूनामी है क्यूँ दुनिया की कड़वाहटें समेट तूं आक्रोशित होता या तट पर देख सैलानियों को होता बेकाबू है तूँ । तेरी गहराईयों में इतनी गहन ख़ामोशी क्यों तेरी उत्ताल तरंगों से जी है बहलता सभी का  तूं तो खुद के प्यास की तलब बुझा पाता नहीं पर शेर,ग़ज़ल,कविता तुझी से संवरता सभी का । देखा उगते सूरज...

आत्मविश्वास सबसे बड़ी ताक़त है

 आत्मविश्वास सबसे बड़ी ताक़त है कुछ लोग कांटे बिछाए बहुत चाह की राह में मगर कांटे भी कर लिए मुहब्बत मेरी चाह से , कोशिशें बहुत किये लोग मनोबल तोड़ने की मगर साथ निबाहा मेरा धैर्य ने धैर्य के हाथ से , रस्सी आत्मविश्वासन की थामे रहीं मुरादें मेरी नहीं तो ख़ाब हो जाता धराशाई छल विद्वेष से , चक्रवात आया बहुत,ज़िद मेरी जूझ लहरों से   लाकर खड़ी कर दी कग़ार पे क़श्ती गैरत से , शक़ खुदा को भी ना था क़ाबिलियत पर मेरी बख़्श दी रब ने भी चाहत मेरी क़ाबिलियत से , कबतक मिटायेगा द्वेष से कोई हस्तरेखा  मेरी जल-जल ख़ुद ख़ाक होंगे वैरी मेरी हैसियत से , कैसी-कैसी परिस्थितियों से गुजरी यह ज़िंदगी   मिली तब आकर मुझसे मेरी मन्ज़़िल ख़ुशी से ।                         शैल सिंह   

'' ग़ज़ल '' '' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा ''

'' ग़ज़ल '' '' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा '' तरस जायेंगे बन्द दरवाजे तेरे कभी दर पे आ तेरे दस्तक ना दूँगी मेरे अहसानों का मोल चुकायेगा क्या तूं तजुर्बों को अब कभी अपने ना शिक़स्त दूँगी अगर लौटा सको तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा जो लूट गया नाजायज़ किसी को वो हर्गिज़ ना दूंगी। लगी देर ना  तेरी फ़ितरत बदलते  इल्म था ये मगर मैंने वफ़ादारी निभाई चोट खाया है दिल मिला वफ़ा का सिला ये जख़्म होता वदन पर तो देता दहर को दिखाई वक़्त का पहिया भी बदलेगा करवट देखना कभी कैसे किसी को इल्जाम दूँ जब ख़ुद को ही ठग आई। मेरी खामोशियाँ भी मुझे कोसती हैं ये दर्द की ही इन्तेहा कि बयां कर सकूँ ना छींटे किरदार पर भी कत्तई नहीं बर्दाश्त होंगे संग हवाओं के भी चलने का हुनर ला सकूँ ना शख़्सियत नीलाम मेरी क्यों फ़रेबों के बाज़ार में कि नफ़रत भी बेवफ़ाओं से मुकम्मल कर सकूँ ना।                                              श...