संदेश

अक्टूबर 12, 2014 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

''शायद यही हो मेरा आत्मबोध-आत्मबोध''

शायद यही हो मेरा आत्मबोध-आत्मबोध लेखनी लिखने को आतुर  पर शब्द छिन गए हैं  उसके अस्तित्व की सार्थकता  स्त्रीत्व के दायरे में जकड़ी  अपने निजत्व से निकलकर  स्वयं को पहचानने के लिए व्यग्र  पर घर की सीमा  परिवार की गरिमा  कायम रखने के लिए  उसकी चिर-परिचित  धरोहर का भष्म होना  क्या यही नियति है ।  सबके लिए दीपशिखा सी जलते रहना  उसकी तपिश में केवल  नारी होने की जड़ता का द्वन्द  शेष उसका अपना ।  कितना तल्ख़ी भरा है स्त्रीधन, अर्थहीन रेगिस्तान सा विवश  नैसर्गिक विकास  क्रियात्मक ऊर्जा को  हवा दे देकर  दाल भात के वाष्प में  प्रतिभा का शोषण  पूर्णता को निहलती रसोई  आत्म विश्वास का  तार-तार होते देखते रहना  क्या यही है उसकी नियति ।  पर नहीं,एक तलाश है  इस लीक से हटकर  मन्सूबों को निखारने के लिए  जो अपने हैं उसके अपने  पथरीली पगडण्डियों पर चलकर  ...

शुद्ध भाव कुम्हलाने लगे क्यों

शुद्ध भाव कुम्हलाने लगे क्यों शुद्ध भाव शुचिता से सींच ले रे मन मानव , उत्कृष्टता भरी कूट-कूट कर अन्तर्जगत के भाव हैं इसमें  , सादा जीवन उच्च विचार रख  सम्पन्नता की खान है इसमें अवमूल्यन कर क्षरण कर रहे हो क्यों भाव जगत को शुष्क बनाकर भौतिकता,सम्पन्नता श्रेठ हो गई आज़ उच्चता विचारों की छोड़कर , शुद्ध भाव कुम्हलाने लगे क्यों देख बाह्य जगत की चमक-दमक प्रेम,दया,परोपकार,सहिषुणता पर हावी हो गई सम्पन्नता की धमक , हर गाँव,नगर,घर,गली,मोहल्ला सभी ग्रसित हैं इससे सर से पांव इस दौड़ में शामिल होकर सब ही भूल गए हैं अन्दर झांकने के ठाँव ।                                            शैल सिंह