शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

'' ख़ुमार फागुन का ''

ख़ुमार फागुन का


अँखिया निहारे पन्थ
करती निहोरा कंत
पुरवा लगे अनन्त
आ जा परदेशी कंत ,
 
मन पर चढ़ गया रंग फागुन का 
तन रंग गया वसन्ती रंग
सराबोर भींजे रोज चुनरिया
हर रंग में चोलिया अंग ,

बदला मौसम का ढंग
पुरवा लगे अनन्त
काहे बने हो संत
आ जा परदेशी कंत ,

मंद-मंद बहे पछुवा रसीली
गुलाबी सिहरन भरे उमंग
ग़जब मारे पतझर मुस्की गुईंया
चौपड़ खेले बहार के संग ,

मधुमासी पी के भंग
पुरवा लगे अनन्त
काहे बने हो संत
आ जा परदेशी कंत ,

पीत वसन में गहबर सरसों
लगे नई नवेली नार
कलियों ने घूँघट पट खोला
करके मोहक सिंगार पटार ,

रसिक मिज़ाज भृंग
रसीली तितली के संग
काहे बने हो संत
आ जा परदेशी कंत ,

नरम भये तेवर पूस माघ के
ठंडी शनैः-शनैः निष्पन्द
नया कलेवर ले पाहुन आये
सुस्त शिराओं में उठे तरंग ,

आ जा लगा के पंख
पुरवा लगे अनन्त
काहे बने हो संत 
मोरे परदेशी कंत । 

                          शैल सिंह








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