मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

ऐ ख़ुदा --

ऐ ख़ुदा --

                ना तो हीरे रतन की मैं खान मांगती हूँ
                  ना चाँद,तारे,सूरज,आसमान मांगती हूँ
              मेरे हिस्से की धूप का बस दे दे किला
                  जरुरत की जीस्त के सामान मांगती हूँ ।


               फाड़कर ना दे छप्पर कि पागल हो जाऊँ
                    रूठकर ना दे मन का कि घायल हो जाऊँ 
              अपने दुवाओं की सारी कतरनें बख़्श देना
                  कि तेरी बंदगी की ख़ुदा मैं क़ायल हो जाऊँ । 


              गुज़ारिश है आँखों में वो तदवीर बना देना
                    मेरी ख़्वाहिशों का मेरे तक़दीर बना देना
             टूटकर कोई तारा फ़लक़ से दामन आ गिरे
                    मेरे बदा में वो ख़ूबसूरत तस्वीर बना देना । 
     


                                                                        शैल सिंह

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

गज़ल " बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें "

गज़ल " बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें "

नाम पर आपके हम मुस्करा क्या दिए 
कि लोग अन्दाज़ जाने लगा क्या लिए 
छुपाना तो चाहा था मैंने मुहब्बत मगर 
ईश्क़ के उसूल ही ऐसे,ख़ता क्या किये ।

खुश रहे तूं सदा दुआ ये मांगा ख़ुदा से 
हँसी होठों पे रहे सदा ऐसी ही अदा से 
जैसे ख़ुश्बू निभाये साथ गुलों का सदा 
वैसे रहे हाथ तेरा भी मेरे हाथों में सदा ।

महफ़िलों में भी बैठकर मैं अन्दाज़ ली 
कितनी बिन तेरे अधूरी मैं अहसास ली 
लाखों की भीड़ में भी लगे अकेली हूँ मैं 
चले आओ फिर ज़िन्दगी हो बिंदास सी ।

न जाने मेरी आँखों को क्या हो गया है 
कि आईना निहारूँ आये तूं ही तूं नज़र 
चढ़ा कैसा ख़ुमार मुझपर तेरे प्यार का 
पांव रखती कहीं हूँ पड़ते कहीं हैं मगर ।

छिपा रखा जो दिल में कह दो वो राज 
चैन चुराने रातों में मत आया करो याद
बता सीखा कहाँ से तूने करतब ये फ़न 
बेचैन कर ख़्वाब में ना किया करो बात । 

बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें 
तस्वीर लेके तेरी हाथों में करती हूँ बातें 
भींगती आँसुओं की बारिश में निशदिन 
अरे कहीं देर ना हो जाये तेरे आते-आते ।

शैल सिंह 



शनिवार, 10 दिसंबर 2022

'जीवन राग'

         जीवन राग 

ना जाने किस बला की नज़र लग गई है 
कि मस्ती भरा  आलम कहीं  खो गया है 
किलकारियों को भी  ग्रहण लग  गया है
आकर्षण  भी ना जाने कहाँ  सो  गया है।   

जहाँ बेला,जूही,चम्पा सुवासती थी चमेली
वही हो गई है मरुभूमि सी मन की हवेली 
प्रेम राग रूठ गया अन्तर्मन के घोंसलों से  
कंटीली कंछियाँ फूटीं हृदय के अंचलों से। 

चिंताओं,तनावों की घेरि आई कारी बदरी
प्रेम की धरा पर रेगिस्तान जैसी रेत पसरी 
अरमान सूखा,सूख गयीं रसपगी भावनाएं  
वक्त के परों पर उड़ विलीन होतीं करुनाएं। 

जरुरत है जीवन में फिर से राग रंग भरना 
उर की स्वच्छ वेदी पे विकार आहूत करना 
आन्तरिक सफाई कर के पौधे संस्कार की 
सुन्दर पुष्प खिल सकें रोपें सूखी संसार की।

बड़े-बड़े मॉल, शहर, कालोनी चौड़ी सड़कें
दब जाये ना मानवता इस मोह में सिमट के
प्रगति की हूँ पक्षधर  विस्तारों का उद्देश्य भी 
सीमित यन्त्र में न खो जाये कहीं मूल ध्येय ही ।

मंहगे मोटरकार,बंगले चिन्ताग्रस्त इंसान क्यों
सुविधाएँ,साधन सम्पूर्ण फिर मन अशांत क्यों 
भवनों में रहने वाले क्यूँ रूग्ण खिन्न आजकल
हँसता,मुस्काता दिखता क्यूँ न कोई आजकल ।

नींद भी नसीब नहीं गुदगुदे बिछे बिस्तरों पर
नींद की खा-खा  गोलियां सो रहा इन्सान हर
महल भौतिक  संसाधन सड़कें  क्या बनाकर
कि पीछे छूट जाये मानवता ऐसे विकास कर ।

बाजारवाद,भौतिकवाद बस अर्थ की प्रधानता
संवेदनशून्य हो गए हम इन्द्रजाल में संलिप्तता
कैसी ये विडम्बना देखो जप,तप,ज्ञान,मान,दान
मृगमरीचिका सी तृष्णा में भूले हैं सब उपादान ।

गाँव,देश,प्रान्त का उत्थान हो,हो मन में भावना
सपनों की शैया पर मृदुल अरमान ऐसे पालना
हो अंतःकरण स्वस्थ, हो अभ्युदय का पदार्पण
तभी होंगे आनंदित हम ले सुख का रसास्वादन ।
                 
                                                     शैल सिंह  

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों

उत्तराखंड की त्रासदी पर
ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों


अरे मेघ जलवृष्टि चाहा था प्रचण्ड जल प्रलय का ऐसा हाहाकार नहीं
सूखी बंजर धरती में अंकुर फूटे धन,जन क्षति का ऐसा चित्कार नहीं।

प्राकृतिक छटा के मोहपाश ने लील लिए बेकसूर जीवन जाने कितने
तेरी क्रूरता पार की आंकड़ा तड़प बता सिहर उठते,जीवित हैं जितने।

देवभूमि दरश की भूखी आँखों का यम से यह कैसा साक्षात्कार हुआ
कुछ काल के गाल में गए समा कुछ को भष्मासुर का क्रूर दीदार हुआ।

कैसे जज़्ब करें अपनों के खोने का ग़म वादी ने आत्मसात किये हैं जो
रूह कंपाने वाली अलकनंदा,मंदाकिनी ने बर्बर वहशियात किए हैं जो।

भगीरथ तेरी उद्दंड भयावह क्रीड़ा जो विस्फारित दृगों ने देखा अचंभित
अथाह छलकाया था जल का सागर फिर भी प्यासा तरसा तन कम्पित।

जाने किस कन्दरा दुबक गए देव असहाय ,बेसहारा कर श्रद्धालुओं को
उत्पात हुआ केदारनाथ के गढ़ में जिंदगी की हवाले मिटटी बालूओं को।

आस्था का ये कैसा इतिहास रचा अपने अस्तित्व के होने या ना होने का
अंधभक्ति का ये क्या सिला दिया अद्दभूत शक्ति के होने या ना होने का।

भ्रम के भंवर में खा रही हिचकोले अब तो अति विश्वास की नैया जग की
जलाभिषेक,उपवास,अर्चना करें नैवेद्य अर्पित,शीश नवायें किस पग की।

अगर प्रकृति से खिलवाड़ हुआ तो प्रकृति ने भी जघन्य उपहास किया है
ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों,शरणागतों से बेरुखा परिहास किया है।
 
                                                                                    शैल सिंह  

ये वादियां,फिजायें दे रहीं आमन्त्रण

ये वादियां,फ़िज़ाएं दे रहीं आमन्त्रण 

कुर्ग, कोडईकनाल, मुन्नार, लोनावाला
अवकाश का आनंद लेने चलें खंडाला ,

कहीं बीत ना जाये गरमी की छुट्टियां
उधेड़बुन में खुल ना जाये झट स्कूल
अनदेखा,अविगत अनुभव करने का
फिर कचोटता रह ना जाये चित शूल ,

वन की विलक्षण वनस्पतियां देखने
अनुपम उद्यान,रंग-विरंगे उपवन का
ये वादियां,फिजायें दे रहीं आमन्त्रण
लुत्फ़ उठाने को निरूपम मौसम का ,

पर्यटन के अनेक रूपों का रोमांचक
एहसास कराने विलक्षण जहान का
कल-कल बहते झरने पहाड़ बीच से
साक्षात् दृश्य डूबते हुए अंशुमान का ,

सावन की बरसती रिम-झिम फुहारें
उस पर अप्रतिम सौन्दर्य प्रकृति का
भीनी-भीनी ख़ुश्बू सुहाये पावस की
ठंडी हवा के झोंके नैसर्गिक सुंदरता ,

हरी-भरी खूबसूरत लगती पहाड़ियां
झरनों के चतुर्दिक चादर बादल का
कण-कण स्वागत  करती मुग्ध धरा
मानसून के जीवन्त सुरभित रंग का ,

प्राकृतिक सुवास से प्राण प्रस्फुटित
पेड़-पत्ते,जीव-जन्तु ,नदी,पोखर का
छटा मनोहर भाये सुंदर गोधूलि की
शांत,एकांत सदाबहार गिरि दल का ,

प्रकृति का बेजोड़ उपहार समेटे पर्वत 
अलौकिक अनुभूति,मोहक रमणीयता
अनगिनत अनोखा दर्शनीय स्थल यहाँ
बर्फीला रेगिस्तान औ मरुस्थल दिखता ,

अनदेखे कोनों की आओ याद सहेजने
शहरों की हलचल से बिल्कुल अलहदा
जिस सैर से सैलानी दिल हो बाग़-बाग़
आओ देखो मस्त चाँद नीले अम्बर का ,

मदहोशी का आलम फैला दूर-दूर तक
कुनकुनाती धूप चहकती आबोहवा का
आह्लादित मखमली,अनछुई ये वादियां
कौतूहल से चारू श्रृंखला नीलगिरि का ।

अविगत---अनजाना
मंजुल--सुन्दर , चारू--सुन्दर ,
                                              शैल सिंह



रविवार, 30 अक्तूबर 2022

तन्हाई ने सीखा दिया जीने का गुर

        तन्हाई ने सीखा दिया जीने का गुर 


कभी शरच्चन्द्रिका सी विहँस अद्भुत जगत के दरश करा देती 
कभी झटक परिहास कर धूसर विश्व में छोड़ चली जाती तन्हाई
कभी यादों,सोचों का साम्राज्य खड़ा कर गहन सन्नाटा देती चीर
कभी मन के निर्मम,बोझल तम को आलोक दिखा जाती तन्हाई  ,

कभी अन्तर कर देती क्लेशित,कभी नाभाष प्रफुल्लता भर देती
कभी निराशा के अंचल हर्षातिरेक से आस की पूर्णिमा भर देती
कभी तन्हाई के नैराश्य जमीं पर सुख-दुःख के सरसिज बो देती
कभी जीने की राह सुझा जाती कभी झट धीरज संचित खो देती ,

कभी विलास की रानी बनकर मृत स्पन्दन में किसलय भर देती
कभी अलौकिक,अद्भुत लोक में पहुँचा मन मतवाला कर देती
कभी नयनों में खारा सागर कभी अविच्छिन्न उत्साह से भर देती
कभी एकाकी जीवन उपवन,शीतल पवन बन सुरभित कर देती ,

कभी हताश,निराशा,विषाद,अवसाद की ऊसरता मिटला जाती
कभी जीवन सरिता का उद्गम बन,मरुमय वक्ष उर्वरा बना जाती
कभी बाल सहचरी बन तन्हाई ,तन्हाई की नीरवता सहला जाती
कभी ख़ुशी का अलख जगाती कभी ज्वाला बन गात जला जाती ,

कभी तो कुत्सित भाव जगाती कभी कोलाहल मन का पढ़ लेती
कभी बैठ पखौटे पे कल्पनाओं के कविता की कड़ियाँ गढ़ देती
कभी समर्पित हो अभिव्यक्तियां प्रखर चुपचाप सृजित कर देती,
कभी चुन-चुनकर स्वतंत्र भाव हृदय में,क्लान्त कवि के भर देती

कभी ये निर्वाक् अविचल भाव से कई सुख के आयाम जुटा देती
कभी ख़ामोश सिमट सीने में,उमग मधुऋतु की आस लगा लेती
कभी उफ़नाती मसि बन उत्साहित,अनंत शब्द भंडार जुहा देती
कभी आश्रय बन मन के व्याकुलता की अरुण ध्वजा फहरा देती ,

जीवन की गोधूलि बेला का पतझड़,सभी उन्मत्त बहारें लौट गईं
कुछ दिन सुख के घन छलका सुख की अब सारी चंचल रैन गईं
अब नहीं नया कुछ होने वाला अपने सब साथ छोड़कर चले गए
बहुत विदारक चिर शान्ति व्यथा की दाह पास छोड़कर चले गए ,

तन्हाई का प्राँगण,भावों,कल्पनाओं,स्मृतियों के खिलते पुष्प यहाँ
निर्जन एकांतवास को बना देती सुहागन श्रृंगार सजाती मौन यहाँ,
उम्र के सूने छरीले तट का सुनसान किनारा,सौन्दर्य निहारे कौन
पीर अपरिमित ममता की,वात्सल्य की,फिर आलिंगन धारे कौन । 

                                                                               शैल सिंह


शनिवार, 29 अक्तूबर 2022

'' तुम हाँ तुम ''

                तुम हाँ तुम 

कितनी बार घटा बन उमड़-घुमड़ बरसी मेरी घनीभूत पीड़ा
काश कभी पोंछ दिए होते तुम स्नेह में बोर-बोर ख़ुद पोरों से ,

जो अभिव्यक्ति पिरो गीतों,छंदों में अलापी थी मेरी मन वीणा
काश कभी व्यथित हुए होते सुन दर्द भरे आरोह-अवरोहों से

उर के अतल समंदर ना जाने कितने थे बेशकीमती रत्न छिपे
काश कभी पैठ खोज लिए होते तुम अंतर्मन के गोताखोरों से

कलमवद्ध कर कविता में उर के अनमोल मोती थे पिरो दिए
काश कभी मन से पढ़ तुम भींग गये होते दर्द भरे कुहोरों से 

उर्वशी,रम्भा अप्सराओं सी कहाँ तुझे मेरी देह से नशा मिली
काश योगी का तप भंग करने के होते मुझमें ढंग छिछोरों से। 



                                                               शैल सिंह 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

खुशी,हर्ष,आनंद हो सबके दामन में

रिश्तों में मिठास घोलने रंज,भेदभाव की दीवार ढहाने
पर्व दीपोत्सव आया सर्वहित संकल्प का थाल सजाने ।

सुख,समृद्धि,भाईचारे का पर्व दीवाली तुमसे ही दीपक
सज क़तार में जगमग जग सारा होता तुमसे ही दीपक
रात अमावस की काली तुम चीर तिमिर का सीना दीप
कर देते भोर सी निशीथ,शुभ पर्व प्रकाश का मना दीप ।

जब सारी दुनिया सोती प्रशान्त नीरव में धुनि रमाते हो
आकर्षित कर अग्निशिखा से  शलभों को झुलसाते हो
अंधकार हरने को जैसे आलोक बिखेरते हो कण-कण
वैसे दो वर मनुज को शुचि भाव हृदय भर करें समर्पण ।

माटी का तन जला दीये ने जग में बिखराया उजियारा
प्रज्वलित हो सारी रात्रि भी निज तले झेला अंधियारा 
किस तप साधना में लीन किसलिए निरन्तर जले दीप
तिल-तिल,जल-जल किसलिए  ज्योतित होते रहे दीप ।

अखिल सृष्टि लिए हो जगमग अपनी गात जला डाले
दिया क्या कृतघ्न जगत ने अपना अस्तित्व मिटा डाले
किस माटी का पुतला तूं निस्तब्ध यामिनी में निःस्वार्थ 
जगमग पग-पग बाहर,भीतर जल करता रहा पुरुषार्थ ।

वंदनवार सजा द्वार सब खींच रंगोली चौखट आँगन में 
माँग रहे कर जोड़ ख़ुशी,हर्ष,आनंद हो सबके दामन में
धूम धड़ाका छोड़ पटाखे खा खील बताशे और मिठाई 
हर्षित हो गा नाच रहे बच्चे,बूढ़े,नौजवान दुन्दुभी बजाई ।

अन्धकार को देने मात दीवाली आई लेकर नव सौग़ात 
हर घर हर दर पधार रहीं महालक्ष्मी,है ना अनोखी बात
दीपदान कर मुँह मीठा कर सबने सबको दिया बधावर 
मन्द-मन्द बुझा दीया उगी ऊषा की लाली लगा महावर ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 







गुरुवार, 13 अक्तूबर 2022

तूने क्या परितोष दिया,

       तूने क्या परितोष दिया


तूं कितना कंजूस है भगवन तुझसे बहुत शिकायत है
क्यूँ मेरे लिए ही हर जगह तूं करता इत्ती किफ़ायत है,

मैंने भी तो मंदिर-मंदिर जा तुझको था परनाम किया
तेरी दहलीज़ पर मत्था टेक,चरणामृत का पान किया,

मैंने भी फल,मेवा थाली,भर-भर भोग तुझे लगाया था
अक्षत,रोली,धूप,अगर,चारों कोणों में दीप जलाया था,

गोमाता के शुद्ध क्षीर से हर-हर बम-बम नहलाया था
चालीसा औ महामंत्र पढ़ बस तुझमें ध्यान रमाया था,

दान,दक्षिणा दे द्विजों को भी श्लोक,मन्त्र,पढ़वाया था
घंटियों की कर्कश ध्वनियों से कितनी दफ़े जगाया था,

नैनों की अविरल धार से,कितनी बार अभिषेक किया
निर्निमेष कर जोड़े भाव से,पर तूने क्या परितोष दिया,

रत्ती भर भी भान नहीं था भगवान घाघ,घूसखोर भी है
तगड़े असामी के लिए लगा,देता ताक़त पुरजोर भी है,

मैंने तो अपनी सामर्थ्य और क्षमता तुझ पे खूब लुटाया
बेजान शिला की मूरत ने क्यूँ पग-पग मुझको भरमाया,

प्रभु भोर हुई तेरे दरश से मेरी,जप नाम तेरा मेरी शाम
सुबह,सांध्य गंवाया मैंने तेरी,आरती,वन्दन में निष्काम,

कभी चाँद,सितारे तो मांगा नहीं ना ही मांगी आसमान
छोटे-छोटे सपनों के नयन में सजे थे कुछ मेरे अरमान,

छली गई आस्था सिरे से,ठगा गया अपरिमित विश्वास
तुझे क्षमा नहीं करुँगी दंभी जब तक लेती रहूंगी श्वांस,

शेष बचे उम्मीदों पर थोड़ी सी कृपा अपनी बरसा देना
ऐ प्रस्तर के निठुर देवता आकांक्षा के फूल खिला देना ।

                                                       शैल सिंह



बुधवार, 12 अक्तूबर 2022

एक हमारा कल था

 एक हमारा कल था 


अब तो उलझकर बचपना बस किताबी हो गया
हाथों में टैब,मोबाईल ठाठ बहुत नबाबी हो गया ,

अब तक है याद ताज़ी,छुटपन के प्यारे गाँव की
छपाछप खेलना बरसातों में काग़दों के नाव की ,

भोर की सुनहरी किरणें ढलती सुहानी शाम की
नीम,कीकर का दतुवन सेंक सर्दियों के घाम की ,

पक्षियों की चहचहाहट कागा के कांव-कांव की
प्रणाम करना,नित्य भिनुसार बुज़ुर्गों के पांव की ,

झरकन बसंती हवा की बरगद के घने छाँव की
गन्ध सोंधी महक माटी की  बचपन के ठाँव की ,

ओसारों में डलीं खाटें लुत्फ़ चाँदनी के रात की
यादें बहुत हैं रुलाती गुज़री घड़ियों के बात की ,

संयुक्त परिजनों का क़स्बा दादू के चौपाल की
पक्के कुंवना का पानी चने,अरहर के दाल की ,

मटर की घुघुरी,कच्चा रस, सरसों के साग की
चोखा भऊरी का लुफ़्त पके गोहरे के आग की ,

चिन्ता ना फ़िकर,ज़िम्मा ना ज़हमत जवाल की
गुडे्-गुड़िया याद झूला वो निमिया के डाल की ,

सखियों संग कुलांचें भरना अमुवा के बाग़ की
याद आये कुर्ती लगे जंबुल,टिकोरे के दाग की ,

घर के विशाल अहाते,चौबारे में किये राज की
सिमट गयी हा ज़िन्दगी दो कमरों में आज की ,

अज़ीब शहरी आबो-हवा,काम की न काज़ की
लूटी जाये रोज आबरू बहन-बेटी के लाज की ।  

कीकर--बबुल, जंबुल---जामुन                                           

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं

अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं

रात गहगह चाँदनी में नहाई हुई है
झिलमिल सितारे जगमगा रहे हैं
नाग़वार दिल को लगे ये नज़ारा
अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं।

नज़रों की खुराफ़ात ख़ता दिल से हो गई
सदमा गहरा दिल पर जुदा तुमसे हो गई
कौन हूँ मैं तेरी क्या वाबस्ता तुझसे मेरा
हुई वफ़ा संग बेवफ़ाई ख़फ़ा तुझसे हो गई ,

झांकते हैं रोज पलकों की बन्द झिर्रियों से
अबस यादों के गुस्ताख़ वो गुजरे ज़माने
यादों के पाँखी मन क़फ़स में फड़फड़ाते 
रक़्स करते हैं और जख़्म जवां हो पुराने ,

ये जलवे फिज़ा के ये शब की गहनाई
मंज़र वही पर रौनक़े-महफ़िल नहीं है
हँसीं ग़ुंचे वही सबा पेशे गुलशन वही है
मगर जलवा-ए-नुरेज-अज़ल वो नहीं है ,

आहिस्ता-आहिस्ता ये रात ढल रही है
रुख पे नकाब डाले चाँद छिप रहा है
आसमां के जुगनू सितारे सो गए सब
दिल बहलाने के  सहारे खो गए सब ,

शेर --

गुजरे किस दौर से हैं फिर भी मुस्कराये
तख़लीफ़ कर हम खुद-बख़ुद गुनगुनाये
तंज कसते मजरूह दिल पे अहवाब सारे
सरमाया ज़ख्मों का रखा दिल से लगाये ।

                                  
मजरूह--घायल , 
अहवाब--मित्र 

'' ग़ज़ल ''

ग़ज़ल 

महक से हो गई तर हमारी गली
उनके आने की आहट हवा दे गई,

जिस्म की डाल पर रंग चढ़ने लगे
बेसबर से नयन राह तकने लगे
ख़ुश्बू राहे-जुनूँ पर जहाँ ले गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

खुली आँखों में सपने संवरने लगे
रात भी आज दिन मुझे लगने लगे
शबे-तारीक में चाँदनी जवां हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

हरे हो गए शज़र उनके पदचाप से 
ख़िज़ाँ के फूलों पर सुर्ख़ी आने लगी
ख़ुशी लग कर गले से घटा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

प्यार में जाने क्या सिलसिले ये हुए
कंपकपाये थे जो लब गिले के लिए
करीब आते ही जाने कहाँ खो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

छाँह आग़ोश की पाये अरसा हुआ
बाँहों में भर नेह से जब मन को छुआ
हर छुवन दर्द की अचूक दवा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

लौटकर शाद आये घऱ मेरे सनम
शाम सुरमई गुलाबी सवेरा हुआ
सरे-मिज़गाँ बिठा कर रवा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

टूटकर शाख़ से यास थे हम-नफ़स 
सद-गुहर पा फ़िरोजां हुई शैल अब
जीस्त वीरां ताबिन्दा-पाईन्दा हो गई 
उनके आने की आहट हवा दे गई,

अर्थ--
राहे-जुनूँ--पगलाए हुए रस्ते ,शबे-तारीक--अँधेरी रात
शाद--प्रसन्न ,सरे-मिज़गाँ--पलकों पर ,
रवा--प्रभावित ,यास--मायूस ,सद-गुहर--हजारों मोती ,फ़िरोजां--चमक ,
ताबिन्दा--चमकदार ,पाईन्दा--स्थाई ,
                                                              शैल सिंह






ईश्वर की लीला'

  ईश्वर की लीला'

बहुत कुछ दिया है यूँ तो खुदा ने 
तृप्ति नाम की चीज मगर पास रख ली ,
अनन्त इच्छायें दीं पवन वेग सी
दमन नाम की चीज मगर पास रख ली ,
रची भोग,लिप्सा,विलास,वासना
शमन नाम की चीज मगर पास रख ली ,
बहुरंगी सपनों के आयाम सजा
जमीं ठोस कर्मों की मगर पास रख ली ,
मन को गढ़ा कितने मनोयोग से 
विभूति मानवता की मगर पास रख ली ,
पत्ता तक हिले ना बिन उसकी मर्जी
वस्तु दोषमुक्ति की भी मगर पास रख ली ,
तज विकार शीश का बोझ उतारें कहाँ
कुँजी निदान की भी तो मगर पास रख ली ,
सुख,शान्ति,अमन,चैन ढूंढ़ते फिर रहे
सन्दूक ऐसे भी धन की मगर पास रख ली,
खामियाँ भी भरीं खुद ही इंसानों में
पिटारा खूबियों का भी मगर पास रख ली ,
सब कुछ हो रहा सृजन के अनुकूल ही 
सर कभी इल्ज़ाम ईश्वर ने कब खुद के ली ।

मर मिटें अपने प्यारे वतन के लिए

मर मिटें अपने प्यारे वतन के लिए 

मर मिटें अपने प्यारे वतन के लिए 
भारत माता को ऐसा ललन चाहिए, 
          वक्त ने आज ऐसी चुनौती है दी
           हमें सद्दभाव समता चलन चाहिए,
माँ के चरणों में श्रद्धा से जो चढ़ सके 
वो चमन का दुलारा सुमन चाहिए,
           विकारों को तज सत्य का बोध हो 
           सुख,शान्ति का निर्भय अमन चाहिए, 
जो भंवर में फंसी पार नौका लगा दे
नाविक की वल्गा में वो बाँकपन चाहिए,
            तमलीन जगत वास्ते आत्ममंथन करें 
            दिल में दीपक जले वो जलन चाहिए,
मेरी कब चाह हीरे,रतन,सम्पदा 
शैल रोटी और कपड़ा,भवन चाहिए ।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

नारी मर्म न जाना पुरुष जगत तुम

नारी मर्म न जाना पुरुष जगत तुम 


नारी मर्म ना जाना पुरुष जगत तुम
निर्देश दिया तूं नारी धर्म निभाने की ,    

कब झांककर अन्तर्मन देखा तुमने
जिसकी सागर  सी कितनी गहराई                      
झाग सी उठती लहरें देखा,कभी न
देखा शांत,स्निग्ध तरनी क्यों बौराई ,

बोलो कब दुराग्रह की थी मैं तुझसे 
दे दो ना लाकर मुकुट हिमालय का
बोलो कब चाहा  देवी की मूरत बन
मूक शोभा बन कर रहूँ देवालय का ,

बांध कर तुमने मुझको वर्जनाओं में 
लक्ष्मण रेखाएं हैं खींच रखी कितनी
तुमने जकड़के परिधि के जंज़ीरों में
तय कर रखी हैं मेरी सीमाएं कितनी ,

क्या होतीं मर्यादायें कैसा संयम,की
प्रतिपल मुझे बतलाते रहे परिभाषा
छल करते आये धारण कर आवरण
नहीं जाना क्या हृदय की अभिलाषा ,

मैंने तो द्विज के सातों वचन निभाए 
परिणय धागे में स्वयं को बाँधे रखा 
मेरे सतीत्व की अग्नि-परीक्षा लेकर 
भी,क्यूँ प्रमाण की करते रहे समीक्षा,

मैं सम्पूर्ण समर्पण से वामांगी बन के
जीवन,सेवा के यज्ञकुंड में स्वाहा की
तुम अग्निसाक्षी नियम ताक़ पर रखे 
मैं तन जला दीये सी देहरी आभा की ,

मुख लगा मुखौटा खुद हजारों रंग के
उड़ा दी मेरे अटल विश्वास की धज्जी
व्यर्थ ही पूजती  रही तुझे देवतुल्य मैं
रख दी अस्तित्व बना  कागद की रद्दी  ,

लूटा दी स्नेह,ममता की  चिर तिजोरी
लूटा दिया वात्सल्य का सकल संसार
बहाकर प्रेम की अतल,अथाह नदी मैं
ढूंढ़ती फिर रही समग्र जीवन का सार ।


                                  शैल सिंह




शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

अहोभाग्य उत्तर प्रदेश का

योगी जी के मुख्यमन्त्री बनने पर कविता

अब होगा उत्तर प्रदेश का उन्नयन
कंवल फूल खिला जन-मन के उपवन ,

इक संत की हुई है ताज़पोशी
कितनी हनक,धमक के साथ
अरे अहोभाग्य उत्तर प्रदेश तेरा
रच डाला जनमत ने इतिहास ,

हाथी का मद चूर-चूर हुआ
चारों खाने चित पड़ी निढाल
खिसियानी बिल्ली सी खम्भा नोचे
छाती पीटे बना ईवीएम को ढाल ,

हाय घोंचू पंजा ने कर दिया कैसा
साईकिल भैया का बदतर हाल
इतनी गहरी खाई में ढकेला कि
बिखर गया बिछा शतरंजों का जाल ,

अस्तित्व झाड़ू का खतरे में 
खा-खाकर खुजलीवाले से ख़ार
टूटकर बिखर रहा एक-एक सींका
जाने अब क्या होगा अगली बार ,

लालटेन इतना भी मत भभको 
आँधी नहीं इस बार की बख़्शेगी
बाती पर रखना कस लग़ाम [ ज़ुबान पे ]
जनाधार की कैंची ही कतरेगी,

टकरा-टकरा राष्ट्रवादी ताक़तों से 
हवाएं भी गईं चहुँओर की हार
सहर्ष लिपट गईं आकर गले
पुष्प बन,योगी जी के गले का हार ,

साहूकार बनकर जो लूट रहे थे
धड़ाधड़ सरकारी ख़ज़ानों का माल
अकल उनकी भी ठिकाने लगा दिए
ख़ुद उनके अपने ही सियासी चाल ,

और कितने दिन छलते देशद्रोही
छद्म पाठ साम्प्रदायिकता का पढ़ाकर
ऐसा जड़ा तमाचा बड़बोले गालों पर
जनता ने गढ़-गढ़ पत्ता साफ़ कराकर ,

वर्षों से डराकर जिन भौकालों से 
वर्णों-धर्मों का ग़द्दारों ने किया व्यापार
आज़ योगी,मोदी जी के क़द्रदानों ने
उन्हें धूल चटा बहा दिया यूपी में बयार ।

                                      शैल सिंह




शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

वसंत ऋतु पर कविता

वसंत ऋतु पर कविता 

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना
थोड़ी सर्दी थोड़ी गर्मी
लगे मौसम बड़ा सुहाना ,

इंद्रधनुष ने खींची रंगोली
सज गई मधुऋतु की डोली
बिखरा दी अम्बर ने रोली
धरती मांग सजा खुश हो ली
छितरी न्यारी सुषमा चहुँदिश
कलियाँ घूँघट के पट खोलीं
ठूँठों पर आई तरुणाई
भर गई उपहारों से झोली,

देख हरित धरणी का विजन
हुआ मन मयूर मस्ताना
सरसों पीत चूनर लहराई
उसपर तितली का मंडराना
पी मकरंद मस्त भये मधुकर
हुए मद में मगन दीवाना
गूंजे विहंगों की किलकारी
कुञ्ज-कुटीर मलयानिल का आना ,

मह-मह महके बौरा अमराई 
मधुकंठी मीठी तान सुनाये
देख वासन्ती मादकता नाचे
वन,वीथिका,नीलकण्ठ बौराये
पछुआ-पुरवा की शीतल सुरभि
नशीला गन्ध चित्त भरमाये
पापी पपीहरा पिउ-पिउ बोले
पी की सुध विरहन को सताये ,

चित चकोर तिरछी चितवन से
अपने सजन से करे निहोरा
मूक अधर और दृग से चुगली
करे दम-दम सिंगार-पटोरा
प्रकृति नटी भरे उमंग अंग-अंग 
कंगना वाचाल हुआ छिछोरा
अनुभाव ना बूझे बलम अनाड़ी
कुंदन तन अंगार दहकावे मोरा ,

वसन्त की मंजुल दोपहरी में 
ग़र मेरे प्रियतम पास में होते
नहा प्रीत रंग में सराबोर
हम सारा अंग भिगोते ,
धरा वसन धारे ज़ाफ़री-हरा रंग 
अपना चिरयौवन दिखलाये
बहें उन्मादी फागुनी हवाऐं
चाँदनी उर पर बरछी चलाये ,

नववधू सी लगती वसुधा
सूरज प्रणय निवेदन करता
अवनि हुलास से इठलाती 
होंठों पर शतदल खिलता ,
टेसू,गुलाब,हरसिंगार पर मुग्ध 
पलाश,मौली,कचनार पर रीझता
चहुँओर बिछा मनमोहक इन्द्रजाल
दिग-दिगन्त सौन्दर्य दमकता ,

बड़ा सुहावन मन भावन
लगे वसंत तेरा आना 
थोड़ी सर्दी थोड़ी गर्मी
लगे मौसम बड़ा सुहाना। 

                            शैल सिंह

रविवार, 25 सितंबर 2022

क्रान्तिकारी कविता शब्दों की परिमिति लांघी रे बहती स्याही की धार

क्रान्तिकारी कविता 

हस्त कलम गहते ही दहाड़ कर भरने लगी हुंकार 
शब्दों की परिमिति लांघी रे बहती स्याही की धार ,
तोड़कर बंधन विविध भीति के द्विजिहा ने की वार 
चल गया ख़ंजर काग़ज़ पर उर ने जो उगली उद्गार ।

परिमिति--सीमा      
भीति--भय,डर                                        

क्रमशः--

जब-जब सांप-सपोलों के,फन हमको फुफकारेंगे
ताल ठोंककर कहते जी,हम मौत के घाट उतारेंगे,

कबतक मलते रहेंगे हाथ वो घात के पांव पसारेंगे
दूध पिलाया ठर्रा तो जूतमपैजारम से भूत उतारेंगे ,

क्या समझे हो मरदूदों जो जी में आएगा बक दोगे
अभिव्यक्ति की आजादी पे  थोबड़ा तोड़ भोथारेंगे ,

संपोलों शरण में रहने वालों ग़र ऐसे आँख तरेरोगे 
ज़रा ना होगी देर आँखों से आग उगल भक्ष डारेंगे  ,

अगर शहीदों की परिभाषा पड़ी तुम्हें समझानी तो
तत्काल जन्नत के रस्ते का सरजाम अनेक संवारेंगे ,

अपने ही देश से कर बग़ावत दिखालाता तूं है तेवर
औक़ात तेरी बतलाने को तुझे धो-धो और कचारेंगे ,

जिस थाली में ख़ाकर पामर,पिशाच सुराख़ करेगा
ग़र जपे राग गैरमुल्क़ का ऐ कृतघ्नों खाल उघाड़ेंगे , 

जिन जयचंदों की मिलीभगत से अशांत वतन है ये
उन मतिमंद,देशद्रोही,ग़द्दारों को भी खूब निथारेंगे ,

साज़िशों का ग्रास बनें फ़ौजी चौकसी में सरहद पर 
तो क्या शत्रु करे ज़श्न हम हाथ पर हाथ धरे निहारेंगे, 

तूने कर्णधारों,शूरवीरों के परिवारों को बिलखाया है
अन्धाधुन्ध तोपों के बौछारों से मगज़ तेरा भून डारेंगे ,

नरपिशाचों,भेड़ियों क्या अम्मीयों ने हैं संस्कार दिए
हरे रंग का चढ़ा फ़ितूर जो पांव तले रौंद ललकारेंगे ,

शुभचिंतकों,रहनुमाओं सुनो आतंकी सरगनाओं के
निर्दयता से ज़िस्म से अंतड़ी जाहिलों नोंच निकारेंगे ,

छलनी हुआ है क़लेजा देख क्षतविक्षत जवानों को 
सिर बाँधा कफ़न तेरे रक़्त से माँ का पांव पखारेंगे ,

दीया तेरा भी करेंगे गुल हनुमनथप्पाओं के बदले 
क्यूँ तूने उकसाया पुरखों तक का ताबूत उखारेंगे ,

हद हो गई हद से बाहर रटन अहिंसा का त्यागेंगे
प्रतिज्ञा लेते हैं बर्बरता से तेरा अंग-अंग चटकारेंगे ,

हर बार हुआ आहत विश्वास कितने वंश हम खोये 
किस हर्ष से ऐसे कृत्यों पर अंश को तेरे पुचकारेंगे ,

इक अशफ़ाक़उल्ला वतन लिए झूल गए फंदे पर
तैमूर की ये औलादें कालिख़ देश के मुँह पोचारेंगे ,

खाक़ होता क्यों विश्वपटल पर देख धमक हमारी
धाक से जा तेरी जमीं पे केसरिया केतु लहकारेंगे ,

जब तक सभा मौन थी तूने देश का चीर खसोटा
अब चक्र सुदर्शन धारे गिरधर चूलें तेरी खखारेंगे ,

गजनी की,नपुंसक,नाजायज़ ऐ नाशुक़्र औलादों
करो न कई अफ़ज़ल पैदा अब्बा को भी पछारेंगे ,

तूं कुरान के निर्देशों को कुकर्मों का ढाल बना़ले
हम गीता,रामायण का पावन मन्त्रोचार उच्चारेंगे ,

अरे ग़द्दारों जगाओ स्वयं में राष्ट्रभक्ति का जज़्बा
क्या तब होश में आयेगा जब ईश तुझे धिक्कारेंगे ,

हर घड़ी हदस में जीवन तूं भी बैरी से मिल जाता   
सैलानि के शहर अकाल यहाँ कैसे वक़्त गुजारेंगे ,

बनी है अखाड़ा रण की मनोरम कश्मीर की वादी 
कैसे इत्र  सी केसर वाली महक फ़िज़ा में फुहारेंगे ,

कितनी बार सहा वार अपनों ने भी दर्द खूब दिया
सत्तर हूरों के आशिक़ों अब हम तेरी क़ब्र संवारेंगे ।

                                      शैल सिंह

  









रविवार, 4 सितंबर 2022

क्षणिकाएँ

          क्षणिकाएँ 


हर्षित मन से है करना अभिनन्दन 
नवल वर्ष पग धर रहा है देहरी पर
दो हजार इक्कीस ने खींची रंगोली
द्वारे वंदनवार सुमन सजा मही पर। 

हृदय में लहरों का नर्तन
प्यास हलक तक बनी रही
कश्ती खाती रही हिचकोले
मौज़ों की माँझी से ठनी रही

आस की नैया ले तूफानों से
आस्था की वल्गा थाम टकराई
क़िस्मत मँझधार ले डूबी कश्ती  
प्रभु तुझे तनिक तरस ना आई ,

जब घर में आग लगानी थी
कान सटे थे लगी दीवारों के
उस घर की हालत कैसी है
कोई थाह न लेता बेचारों के
ताक-झाँक ना कोई हलचल
अब ना कोई हरक़त गलियारों के

बहुत कुछ मिला पर सुकूं ना मिला
ख़्वाहिशों की लम्बी कतारों के आगे
कब होंगी ख़तम ज़िन्दगी की जरूरतें
जिए जी भर उमर कहाँ ख़वाबों के आगे ,

दर्द घुल बह ना जाये कहीं प्यार का 
इसलिए आँखों का पानी ना बहने दिया
क़तरा-क़तरा मोहब्बत की निशानी समझ 
पलकों की पनाहों में ऐ फ़रामोश रहने दिया

नयनों के चंचल चितवन में पढ़ ली,क्या है मन की भाषा
अधरों के कम्पन से सुन ली,क्या है अंतर की अभिलाषा
क्यूँ पलकें नीची कर जतलाती हो कि प्रीत हुई ना मुझसे
पर अलकें लाज से मुखड़ा चूम,कह दीं मन की मीमांसा ।

कितने मौसम आए गए,हम ना बदले बदल गए वो
हम वहीं के वहीं रह गए,और भी दुगुने संवर गए वो
हृदय पर राज किये कभी जो कर कहीं बसर गए वो
थे जितने स्वप्न सजे नयन में सिरे से उसे कतर गए वो ।

हम मिलें ना मिलें खूबसूरत स्वप्नों पर छोड़ देते हैं
अनिश्चित कालीन प्रतिक्षाओं से मोहब्बत कर लेते हैं

शिद्दत से तराशें गर हम हौसलों को
कद आसमां का खुद-बख़ुद झुक जायेगा
राह कोसों हों मन्जिल की चाहे मगर
खुद मंजिलों पे सफर जाकर रुक जायेगा।

मीमांसा--विचार या मनन 

शैल सिंह 

क्षणिकाएं

           क्षणिकाएं 


कहीं तुम भूल ना जाना कमल के फूल का निशां
कर्दम में भी खिलते देख लौट जाती है आ ख़िज़ां
कमल के जड़,तनें छैले नींव का विस्तार देखो ना
फ़ख़्र होता सुन नमो नाम जिसका क़ायल है जहां  ।

काटनी है सरसठ सालों की कांटों की बाड़ बोई 
अर्सों बाद तख़्तो-ताज पर विराजा है खास कोई
आटा,दाल,आलू,पेट्रोल की मंहगाई का ग़म नहीं
ऊंचा राष्ट्र का हो भाल ये  मन में भाव सबने बोई।

हवा है लहर है गदर है शहर में चारों ओर
खिलेगा अब कंवल ही यही गली-गली शोर
जल रही किसी की है फट रही है किसी की  
बदलाव की यही आँधी अब लायेगी नयी भोर।

आकांक्षा पूरा भारत रंगे भगवा भगवा
लौटकर फिर न आयेगा ये दिन दुबारा
ये गुलशन हमारा ये बागवां भी हमारा
हर चीज पर है बस हक़ हमारा हमारा ।

रब करे उनके जीवन में ना आये सवेरा
भगवा रंग से जिनको शिकायत बहुत है
जिनके ज़ेहन में हिन्द लिए नफ़रत का डेरा
वो जाएँ वहाँ जहाँ की करते वकालत बहुत हैं।

अभी तो हुए हैं जुम्मा-जुम्मा चार दिन
क्यों मोदी से सवालों की फेहरिस्त लम्बी
रब करें छोड़ें संपोले जल्दी जमीं हिन्द की
हमें बेदखल करने की तैयारी मंशा सर्पों की ।

सहेजकर ना रखियेगा ग़र मान भगवा का 
पछताईयेगा ऐसा दौर निकल जाने के बाद 
यही वक्त देशद्रोहियों के मंसूबों को कुचलना
तभी होगा हमारा हिन्दुस्तान आबाद ज़िन्दाबाद ।

कर्दम---कीचड़ 

शैल सिंह 







" अम्बेडकर का संविधान बदल देखिए "

        आरक्षण पर कविता 

         सरकार से निवेदन  


हो चुकी है मियाद ख़तम दख़ल दीजिए
जनता की अरज पर भी अमल कीजिए
नोटबंदी जीएसटी के  मानिन्द माननीय
क़मर कस कर और इक करम कीजिए 

आरक्षण के कोढ़ों से हो मुक्त देश मेरा
इस दीमक से हो रहा खोखला देश तेरा
मेहनतकश नस्लों पर भी रहम कीजिए
हो चुकी है मियाद ख़तम दख़ल दीजिए ।

आरक्षण के हवनकुंड चढ़तीं प्रतिभायें
आर्थिक आधार पर हों चयन प्रक्रियायें
इस नई मुहिम को अब सफल कीजिए
हो चुकी है मियाद ख़तम दख़ल दीजिए ।

तपती योग्यतायें इस मियादी बुखार में
झुलसें बुद्धिजीवी आरक्षण के अंगार में
महोदय इलाज़ का शीघ्र पहल कीजिए
हो चुकी है मियाद ख़तम दख़ल दीजिए ।

बढ़ते अपराध क्यों परत तक तो जाईए
आरक्षण हटा कर एक बार आजमाईए
ऐसी महामारी का अबिलम्ब हल ढूंढिए
हो चुकी है मियाद ख़तम दख़ल दीजिए ।

प्रतिभावों संग होता ये अत्याचार रोकिए
हौसलों का पर ना कतर कर के फेंकिए
अंबेडकर का संविधान बदल तो देखिए
हो चुकी है मियाद  ख़तम दख़ल दीजिए । 

कहर आन्दोलन का भी असहनीय होगा
उम्मीदों पे उतर के देखें अवर्णनीय होगा
जायज है मांग हमारी अब बिगुल फूंकिए
हो चुकी है मियाद ख़तम दख़ल दीजिए ।

                         शैल सिंह

'' अभिनन्दन तेरा साल नवागत ''

    '' अभिनन्दन तेरा साल नवागत ''


नई ऊर्जा लेकर नव वर्ष की आई है नई सुबह
मन है पुलकित नई नेमतें ले आई है नई सुबह ।

नई उमंगें नई तरंगें लेकर आया साल नया
नई हिलोरें लें मन में अंगड़ाई आया साल नया
कर के इक युग का अन्त आया साल नया
बीते साल ने की मेहरबानी भेज कर साल नया ।

फांस जो कुछ भी है बीते युग की दिल में 
सूनें,सुनाएँ दिलों की सुलझाएं आया साल नया
इक दूजे को दिल में बसाएँ और बसें हम
करें भूले विसरों को याद चलो आया साल नया ।

चाहे जैसे गुजरा पर गुजरा पिछला वर्ष 
फिर ना देहरी दहशत लांघे आया साल नया
नए उछाह से नवल वर्ष में हो नव उत्कर्ष 
धवल प्रवाह से नव पर्व मनाएं आया साल नया ।

अनसुलझी सुलझााएं पहेली नई पहल से  
हर्ष आह्लाद से करें अभिनंदन आया साल नया
नव वर्ष के शुभागमन में हो नव आयोजन
हो नव वर्ष का मंगल सूर्योदय आया साल नया ।

बीते वर्ष के अवसान तले करें दफ़न हम
क्रोध,अहं,द्वेष नई भावना भरें आया साल नया
नव वर्ष में फूटे नेह से नव प्रेम का अंकुर 
मन भाव भरें राष्ट्र कल्याण का आया साल नया ।

                                                  शैल सिंह


मंगलवार, 23 अगस्त 2022

ख़िजाँ में फूल खिले ऐसा किया है दंगा

ख़िजाँ में फूल खिले ऐसा किया है दंगा


सबके साथ सबके विकास का
सुर में सुर मिला साथ चलने का
न खाऊँगा न किसी को खाने दूँगा
इसी तर्ज़ पर आगे बढ़ते रहने का ,

इक देशभक़्त ने वीणा उठा लिया है 
समूचा भारतवर्ष बदलने का
जन-जन से आह्वान किया है
संग-संग क़दम मिलाकर चलने का ,

दृढ़ संकल्प है उसने ठान लिया
घर-घर नया सवेरा लाने को
मन को ज़िद पर अड़ा लिया है
घना अँधियारा दूर भगाने को  ,

वर्षों से कोने-कोने विष जो
वातावरण में घुला हुआ था
जिन संग हवाओं का दल भी
खूब आकण्ठों डूबा हुआ था ,

इक देशभक्त फ़कीर दीवाना
इन विषधरों से चला है टकराने
इरादों में परिवर्तन का निश्चय ले
देशद्रोही,गद्दारों को समूल मिटाने

उलझा चल रहा काँटों से दामन
काँटे भी पग उसके चूमने लगे हैं
सत्तर सालों का मंज़र देखे नयन
नये भारत का सपने बुनने लगे हैं ,

क़द्रदान अनेकों इस सच्चे हीरे के
बड़े-बड़े धुरंधर हाथ मिलाने लगे हैं
उसके हर फ़ैसले की कर सराहना
देश के हर नागरिक मुस्काने लगे हैं ,

इक स्वप्न है उसने दृढ़ता से दुहराया 
जड़ से समूल भ्रष्टाचार मिटाने का
कूटनीतिक शस्त्रों से देकर शिकस्त  
लक्ष्यों को मंज़िल तक ले जाने का ,

ऐसे बेशकीमती मोती को पहचानो
अरे ओ देशद्रोहियों,गद्दारों,मक्कारों 
जनमानस के तख़्त का शहंशाह वो
विष वमन करो तुम चाहे फुफ़कारो ,

युग स्वर्णिम होगा अब आने वाला
ऐसे ही कद्दावर महापुरुष के हाथों
इस वैरागी के जीवन का स्वप्न मात्र
विश्व देखे भारत को भर-भर आँखों,

देश के लिए अनमोल शख़्स है यह 
ऐसे महापुरुष को  बनाये रखना है
युगान्तकारी कर्मवीर दृढ़ प्रतिज्ञा का 
आत्मबल,देश वालों बढ़ाये रखना है

धैर्य,समर्पण,सहयोग की अलख
हम सबको मिल के जगानी होंगी
अभी,जो झेल रहे हम सब परेशानी
उसका निकलेगा नतीजा भी दूरगामी ,

हम सबके बलबूते ही इस जीवट ने
भृष्टाचारियों से लिया है जम के पंगा
कभी न छोड़ना शीर्ष पर उसे अकेला
ख़िजाँ में फूल खिले ऐसा किया है दंगा ,

मत करो सियासत सस्ती घटिया
विरोध के लिए विरोधी तेवर वालों           
देखो नज़र उठाकर भविष्य देश का
उठो गन्दी राजनीति से ऊपर व्यालों ,

देख वज़ूद हाशिये पर अपना
दिन-रात पप्पू फेंकर रहा है
मोदी मारक अचूक अस्त्र-शस्त्र
ममता की आँतें कुतर रहा है ,

गजगामिनी जी डूबीं अवसाद में 
पूर्जा-पूर्जा साईकिल का कोमा में
मस्तिष्क दिवालिया हुआ 'आपका'
भूक-भूक लालटेन कराहता कोना में ,

इक पारदर्शी कर्मठ,कर्तव्यनिष्ठ योगी के
नेक इरादे,क्षमताएं गौर से कौशल देखो
आतंक पोषितों,भ्रष्ट नेताओं,माफियाओं के
किलों में हलचल मचा घमासान,दंगल देखो ,

देश की मजबूत बुनियाद लिए ही उसने
नोटबंदी जैसा जटिल अहम् कदम उठाया है
क्यों विपक्षी राजनीतिक गलियारों में ही
इस अप्रत्याशित फैसले पर सियापा छाया है ,

हम भारतवंशियों को गर्व आज यह
कि नमो-नमो जी जैसा रतन मिला है
हर मर्ज़ का उसके पास बेहतरीन इलाज है
इस सर्जन के आपरेशन से कोई नहीं गिला है

हो रहा रिएक्शन विपक्षी,विद्रोही खेमों में 
जनता कर रही हर ऐक्शन का अनुमोदन 
अर्थक्रान्ति के उसके साहसिक प्रस्ताव पर
बच्चे,बूढ़े,नौजवान,विश्व भी कर रहा समर्थन ।

व्यालों--साँप

  जय हिन्द ,जय भारत ,जय मोदी ।

                                  शैल सिंह



सोमवार, 22 अगस्त 2022

नज़्म ' जब से तोड़ा रिश्ता उससे हर ताल्लुक का '

जब से तोड़ा रिश्ता उससे हर ताल्लुक का



याद कभी आये ना वो मेरे सपनों में भी
सख्ती से दरबान पलकों को ताक़ीद कर दी कसम से
लौटा दी नफ़रत की सूद सहित पाई-पाई उसे भी
ज़िक्र कभी छेड़ें हवाएं भी ना ताकीद कर दी कसम से
जब से तोड़ा हर रिश्ता उससे ताल्लुक का
खुद को तन्हाई,गम,उदासी से फ़ारिग कर ली कसम से
मुद्दतों बाद मिला सुकून मेरी रूह को
दिल की विरां महफ़िल फिर गुलजार कर ली कसम से
कहांँ थी काबिल ही वो मेरे मिज़ाज़ के
सच में किस सांचे में ढाला था उसको ख़ुदा ने कसम से ।
                                                          

अगर ठान लो लक्ष्य हासिल है करना


घूंट इंतजार का होता कड़वा बहुत है
इंतजार इक दिन दिखाएगी मंजिल तुम्हारी ।
माना सफ़र इतना आसां नहीं है
मगर राह तकती है मंजिल तुम्हारी
अगर ठान लो लक्ष्य हासिल है करना
मिलके रहेगी हर सूरत में मंजिल तुम्हारी
कर्म और श्रम पे अपने ग़र है विश्वास इतना
स्वतः चलकर आयेगी तुम तक मंजिल तुम्हारी
छोड़ना ना कभी हार के भय से संघर्षों की ताकत
अवश्य ही होगी संघर्षों से प्राप्त तुम्हें मंजिल तुम्हारी ।
                   
                                                    

तरस आता लोगों की मुर्दा सोच पर 


साज़िशों के बाज़ार में आलोचनाओं का शिकार हुआ जाता हूँ
लोग कहाँ समझे मुझे फ़िजां के शोर में शर्मसार हुआ जाता हूँ
देश के लिए क्या ना किया तरस आता लोगों की मुर्दा सोच पर 
बेग़ैरतों की बेवफ़ाई,अपनी वफ़ाओं का कर्ज़दार हुआ जाता हूँ
मोहब्बत मुल्क़ से की बताओ देशवासियों इसमें दोष क्या मेरा
बस फेंकू और लफ्फाज़ी के सौग़ात का क़िरदार हुआ जाता हूँ। 

शैल सिंह 

समंदर पर कविता , ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके

समंदर पर कविता 
ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके


साहिल से टकरा मुड़ जाना शगल बस तेरा
ऐ समंदर ये शरारत तुम्हारी अच्छी नहीं ।

रेत पर जो बनाए थे सपनों के घरौंदे
चल दिए लीलकर तुम बदी की तरह
ऊँची लहरों का रखो पास अपने गुमां
बह सकते नहीं तुम जब नदी की तरह।

कंठ तर कर सकते नहीं जब तुम नीर से
जल के महानद में डूबे आकंठ किस काम के
स्वाती की इक बूंद को सीप तरसा करे
इतने विशाल होकर भी तुम किस काम के।

आचमन भी जिस जल का दुष्कर लगे
जिससे अभिषेक शिवालय का हो ना सके
तेरी बादशाहत बस कायम लवण के लिए
ख़ारे प्रवृत्ति का स्वभाव क्यों बदल ना सके ।

राज क्या है तुम्हारे विस्तृत साम्राज्य का
जब-तब मचाती हलचल तेरी तह सूनामी है क्यूँ
दुनिया की कड़वाहटें समेट तूं आक्रोशित होता
या तट पर देख सैलानियों को होता बेकाबू है तूँ ।

तेरी गहराईयों में इतनी गहन ख़ामोशी क्यों
तेरी उत्ताल तरंगों से जी है बहलता सभी का 
तूं तो खुद के प्यास की तलब बुझा पाता नहीं
पर शेर,ग़ज़ल,कविता तुझी से संवरता सभी का ।

देखा उगते सूरज को हमेशा तेरे आगार से
देखा चाँद ढलता भी समाते तेरी आगोश में
मुश्किल थाह पाना समंदर तेरी गहराई का
मोतियों का भण्डार भी कोख़ के तेरी कोश में ।

चांदी जैसी चमकती दुधिया सी मौज़ें तेरी
बयां करतीं,फन के हो कुशल अदाकार तुम 
इतना हुनर तुममें आया कहाँ से समंदर
कैसे लगा लेते आकर्षण का बाज़ार तुम ।

देखा क्रोध भी ज्वार भाटे सा अति का तेरा
क्यों अवश होता सीमाओं की हदें तोड़कर
फिर मुड़ जाता मौन,निश्छल अबोध की तरह
बर्बादी,तबाही का बदसूरत मंज़र छोड़कर ।

जाने बिना भीमकाय आकार की उपलब्धियां
माफ़ करना कसा बेवजह तंज समंदर देवता
समुद्र मंथन से ही फूटी थी अमृत की धारा
जाना जग के लिए क्या तेरी समंदर विशेषता ।

आगार---गृह,घर
 शैल सिंह 

आत्मविश्वास सबसे बड़ी ताक़त है

 आत्मविश्वास सबसे बड़ी ताक़त है


कुछ लोग कांटे बिछाए बहुत चाह की राह में
मगर कांटे भी कर लिए मुहब्बत मेरी चाह से ,

कोशिशें बहुत किये लोग मनोबल तोड़ने की
मगर साथ निबाहा मेरा धैर्य ने धैर्य के हाथ से ,

रस्सी आत्मविश्वासन की थामे रहीं मुरादें मेरी
नहीं तो ख़ाब हो जाता धराशाई छल विद्वेष से ,

चक्रवात आया बहुत,ज़िद मेरी जूझ लहरों से  
लाकर खड़ी कर दी कग़ार पे क़श्ती गैरत से ,

शक़ खुदा को भी ना था क़ाबिलियत पर मेरी
बख़्श दी रब ने भी चाहत मेरी क़ाबिलियत से ,

कबतक मिटायेगा द्वेष से कोई हस्तरेखा  मेरी
जल-जल ख़ुद ख़ाक होंगे वैरी मेरी हैसियत से ,

कैसी-कैसी परिस्थितियों से गुजरी यह ज़िंदगी  
मिली तब आकर मुझसे मेरी मन्ज़़िल ख़ुशी से ।
                       
शैल सिंह   

रविवार, 21 अगस्त 2022

'' ग़ज़ल '' '' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा ''

'' ग़ज़ल ''

'' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा ''


तरस जायेंगे बन्द दरवाजे तेरे
कभी दर पे आ तेरे दस्तक ना दूँगी
मेरे अहसानों का मोल चुकायेगा क्या तूं
तजुर्बों को अब कभी अपने ना शिक़स्त दूँगी
अगर लौटा सको तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा
जो लूट गया नाजायज़ किसी को वो हर्गिज़ ना दूंगी।

लगी देर ना तेरी फ़ितरत बदलते 
इल्म था ये मगर मैंने वफ़ादारी निभाई
चोट खाया है दिल मिला वफ़ा का सिला ये
जख़्म होता वदन पर तो देता दहर को दिखाई
वक़्त का पहिया भी बदलेगा करवट देखना कभी
कैसे किसी को इल्जाम दूँ जब ख़ुद को ही ठग आई।

मेरी खामोशियाँ भी मुझे कोसती हैं
ये दर्द की ही इन्तेहा कि बयां कर सकूँ ना
छींटे किरदार पर भी कत्तई नहीं बर्दाश्त होंगे
संग हवाओं के भी चलने का हुनर ला सकूँ ना
शख़्सियत नीलाम मेरी क्यों फ़रेबों के बाज़ार में
कि नफ़रत भी बेवफ़ाओं से मुकम्मल कर सकूँ ना।

                                             शैल सिंह 

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

बारिश पर कवि " सावन आकुल है जल आचमन के लिए "

बारिश पर कविता 
सावन आकुल है जल आचमन के लिए


ओढ़ लो ना श्वेत अम्बर घटा की चूनर 
वसुधा प्यासी  है दो बूंद जल  के लिए 
उमड़-घुमड़ मेघ करते तुम आवारगी 
क्यों छलकते  नहीं एक  पल के लिए । 

नभ निहारता है चातक बड़ी आस से 
तृषा से उदासी कोकिल का कण्ठ है 
जलचर तड़फड़ा रहे सूखे ताल,तरनी      
सुस्त नृत्यांगना शिखावल का पंख है ।

कहाँ गड़-गड़ गरज कर चले जाते हो 
छल जाये कड़कती-चमकती दामिनी 
कभी होता ग़र आसार श्याम मेघ का 
मन को हर धार लेते वसन आसमानी ।

आज फिर आई याद बचपन की घड़ी 
वही कागज़ की डोंगी ले आँगन खड़ी 
किस विरह में तुम तल्लीन घन बैरागी  
वेदना तो बताते बरसा नयन की झड़ी ।

धरती सिंगार करने को उतावली बहुत 
आतुर क्यारी में अन्न अंकुरित होने को 
मेघ बिन लगे फीका मल्हार सावन का 
कातर मानुष हैं खिन्न प्रमुदित होने को ।

पगली पूरवा बहे तप्त,देह तवा सी तपे 
तोड़ दो ना बांध अब्र का सभी मेघ जी 
आर्द्र कर दो ना आँचल बरस सृष्टि का 
फिर पूछो प्रेम से आप कुशल क्षेम जी ।

कभी ढाते क्रुद्ध हो जलप्रलय से क़हर 
कहीं करते हो सूखे के प्रकोप से प्रहार 
कहीं दरकाते पृथ्वी कहीं दलदल जमीं 
कभी उड़ाते हो मुँहज़ोर सिकता अपार । 

क्या भूले तुम डगर या हो ज़िद पे अड़े 
निराश ढूंढें पखेरू सूखे वृक्षों पर शरण
व्यथा सहला ना छलका फुहार नेहकी 
कुपित क्यों कोप निर्दोषों पर अकारण 
  
कब नथुनों में घुलेगी मेघ,माटी की गंध 
घेर श्यामल घटा करती सैर किस लिए 
म्लान आनन हैं  प्रेयसी के उद्विग्न नयन 
सावन आकुल है जल आचमन के लिए । 

पनघट पनिहारिनें रीती मटकी ले खड़ीं
कहतीं निठुर व्योम से दृग उठा क्षोभ से 
उष्णता तो मिटा दे अनुराग भर अंजलि 
अनुनय कर रहीं आँचल पसार क्रोध से । 

नख़रे बहुत कर चुके मेह तोड़ो अनशन  
बन महा ठग छल गये जेठ,आषाढ़ तुम 
रखा खाली कलश मन का सावन में भी 
कितने अनुदार अक्खड़  हो पाषाण तुम ।   

शिखावल---मोरनी ,   सिकता---रेत                                 

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित ई

बुधवार, 17 अगस्त 2022

" दूर नैनों से भी हो जुदा,वो दिल से कब हुए"

दूर नैनों से भी हो जुदा,वो दिल से कब हुए


ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसे कि,महक़ जाए ये शहर
या हवा दे आ उन्हें मेरा कुछ हाल या पता 
सिहर जायें सुन के दास्तां वे ऐसा हो असर,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

जा कहो चितचोर से क्या गुजरती दिल पर 
कि क़यामत की रातें हैं कैसा घोलतीं ज़हर
उनके यादों के भंवर में लेती गोता फिर भी
जाने कैसी दरिया मैं  प्यासी रहती हर पहर ,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

दिल आवारा फिरे यादों की पगडंडियों पर  
कट जाता दिन तो होतीं शामें वीरां अक्सर
बुझ जाता दीया पलकों का जल दरीचों पर 
दहलीज़ तन्हाई के रवि भी ढल ढाता क़हर ,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

रूतों ने बदले रुख कई,बदलीं तारीखें नई
मगर शक्लें इन्तज़ार की नहीं बदलीं नज़र
लूटीं कभी खिज़ांयें कभी मौसम बहार का 
पर खिज़ां में भी आस का खड़ा रहा शज़र 

ऐ सिरफिरी हवा ले आ ,उनकी कुछ खबर 
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

ख़ामोश सीने की पनाहों में हैं मौजें सहस्त्र 
सुलगते रेतों पर क्या जानें,वे जलता जिगर 
उनकी ही अता है कि,मेरी ज़िन्दगी आसेब 
क्या हर्फ़ों से समझेंगे वे कैसे कटता सफ़र ,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ, उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

हृदय को हजारों ज़ख़म दे,बहारें गईं गुजर
मगर उनके यादों का न नजराना कीं इधर
दूर नैनों से भी हो जुदा,वो दिल से कब हुए
पतझड़ सरीख़ा जीवन फिर भी यादें अमर 

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

अता--दी हुई  ,आसेब--भटकती      

सर्वाधिकार सुरक्षित
                          शैल सिंह

सोमवार, 15 अगस्त 2022

" मशरूफ़ रहने दो मुझे मेरी तन्हाई में "

 मशरूफ़ रहने दो मुझे मेरी तन्हाई में 

 
नींद पलकों पर आ-आ मचलती रही
ख़ुमारी नैनों में  रक्तिम घुमड़ती रही
स्मृतियां उद्वेलित करतीं रहीं रात भर  
आँखें जलपात्र उलीचती रहीं रात भर ।

निमिष भर के लिए ज्यों  पलकें झपीं
बेदर्द हो गई विभावरी सुबह हो गया
कैद कर ना सके भोर के सपने नयन 
रतजगा से भी कर्कश कलह हो गया ।

होती कर में लेखनी लिख देती व्यथा
मन की लहरों पे मूक भाव तिरते रहे
होती तकरार अभिलाषा, अनुभूति में
यादों के नभ वो परिन्दों सा उड़ते रहे ।

यादों नया दर्द देने का कर के बहाना
छोड़ो तन्हाई के आशियाने पर आना
ग़म को आश्वस्त किया  है बड़े यत्न से
जाओ कहीं और ये शामियाने लगाना ।

अनगिनत क़ाफ़िले मेरे पास यादों के 
मशरूफ़ रहने दो मुझे मेरी तन्हाई में 
बेवक़्त दस्तक़ ना दो दिल के द्वार पर 
न झांको अन्तस की अतल गहराई में ।

मधु यादों की जागीरें उर में सजाकर
मन के पिंजरे पर पहरे बिठा है दिया
लूट लो ना कहीं दौलत तन्हाईयों का
ताक़ीद कर दरबान को बता है दिया ।
 
दिन रणक्षेत्र हुआ है रातें कुरूक्षेत्र सी
यादों तन्हाईयों में जंग प्रबल है छिड़ी
स्मृति ख़यालों में बाँहों में बैठ अंक में
कितने रूपों में लिबास बदल है खड़ी ।

क्या कहूँ सिलसिला यही रोज़मर्रा का 
बोझल पलकों के वृतांत सुनाऊँ किसे
रैन दुहराकर करेगी फिर वही उपद्रव 
ख़यालों में आने से ना रोक पाऊँ जिसे ।  


                        शैल सिंह

शनिवार, 13 अगस्त 2022

तुम याद बहुत आए

         तुम याद बहुत आए 


जब-जब कोकिल ने गान सुनाए
और चटक चाँदनी उतरी आँगन 
जब-जब इन्द्रधनुष ने रंग बिखेरा 
जब-जब आया पतझड़ में सावन 
         तब-तब प्रियतम तुम याद बहुत आए ,

जब-जब तंज कसे मुझपे जग ने 
मन के सन्तापों पर किया प्रहार 
माथे की शिकन पर गौर ना कर 
दुःखती रेखाओं को दिया झंकार 
         तब-तब प्रियतम तुम याद बहुत आए ,

उन्मद यौवन की प्यासी आँखों ने
कभी था उर में तेरा अक्स उतारा 
नाहक़ ही हुई मैं बदनाम निगोड़ी 
जब देखके चढ़ा था जग का पारा 
        तब-तब प्रियतम तुम याद बहुत आए ,

हर के जीवन की होती एक कहानी
किसी के छंट जाते बादल बेपरवाह
जबकि दूध का धुला यहाँ कोई नहीं
जब आईना दिखा दिया गया सलाह 
        तब-तब प्रियतम तुम याद बहुत आए ,

जब-जब दामन पर उछला कीच 
मेरे  पाप-पुण्यों  पर उठा  सवाल
कितनों की करतूतें  गुमनाम रहीं
जब दिल के ठेस पर मचा बवाल
         तब-तब प्रियतम तुम याद बहुत आए ।

                                         शैल सिंह

बुधवार, 10 अगस्त 2022

N.R,R.I. CUTTACK '' इस संस्थान में प्रवास के दौरान लिखी गई मेरी कविता ''


       

         N.R,R.I.  CUTTACK  

'' इस संस्थान में प्रवास के दौरान लिखी गई मेरी कविता ''

जिस धरती पर सूरज अपनी  पहली स्वर्णिम किरण बिखेरे
जिस देवभूमि का चरणामृत पी सागर की लहरें भरें हिलोरें
जिस रमणा के अंक में बहतीं  नदियों की कल-कल धाराएं
जिसके गर्भपिण्ड में कुदरत की अनमोल खनिज सम्पदाएँ ,

वहीं महानदी का सुरम्य तट जहाँ शोध संस्थान है धान का
जहाँ उन्नत नस्लों का होता संवर्धन कृषकों के कल्याण का
यहाँ नई नई प्रजातियों का होता विशेषज्ञों द्वारा आविष्कार
जो उन्नतशील तक़नीकियों से देते नवीन शोधों को विस्तार ,

जिस धरती ने महान अशोक के अन्तर्ज्ञान का दीप जलाया
जिसकी संस्कृति सभ्यता ने जग में अपना परचम लहराया
जहाँ अस्ताचल में इन्द्रधनुषी छटा बिखेरता सूरज सागर में
जिस पावन भूमि ओडिशा को कृतज्ञ किया नटवर नागर ने ,

जिस धरती ने सुभाष चंद्र सा भारत को विराट रतन दिया है
जिस धरती पे धर्माचार्यों ने जगन्नाथ धाम का सृजन किया है
जिस प्रदेश की मोहक कलाकृतियाँ भी विमोही दृश्य उकेरें
जिस तपोभूमि पर गूँजा करतीं नित दैव स्तुतियाँ साँझ-सवेरे,
 
जिस माटी में रची-बसी हैं हस्त,शिल्प रोचक ललित कलाएं
जिस धरती पर झील का उद्गम संसार के पांखी करें क्रीड़ाएं
दार्शनिक अनूठा कण-कण जहाँ का प्रकृति के अनुदान का 
उस मनोहारी रमणीक धरा पे अनुसंधान संस्थान है धान का

इस विज्ञान केंद्र का धान के भूखंड में योगदान है अपरम्पार
जहाँ दूर देशों अन्यत्र क्षेत्रों से आकर करते रहते लोग दीदार
प्रतिवर्ष प्रशिक्षण ले किसान अधिष्ठान से दक्ष हो कर जाते हैं
आधुनिक शोधों के प्रादुर्भाव से अत्यधिक अनाज उपजाते हैं 

कटक शहर के सानिध्य बसा नामी शोध संस्थान ये धान का
जहाँ वैज्ञानिक निभाते महती भूमिका प्रसिद्ध क्षेत्र विज्ञान का 
भूखमरी उन्मूलन हेतु केन्द्र सरकार ने यहाँ खोला ये संस्थान
जहाँ उत्कृष्ट रूपों में खाद्यान्न का हुआ विकासोन्मुखी उत्थान,

शैल सिंह





मंगलवार, 2 अगस्त 2022

लघु कवितायेँ

             लघु कवितायें 


आज मुद्दतों बाद उनसे हुआ सामना
उनसे नजरें मिलीं और फिर झुक गईं
फिर पहले सी हुई मन में वही गुदगुदी 
बंद पंखुड़ियाँ उल्लसित फिर खुल गईं ।

मुस्कुराऊं,खिलखिलाऊं बाग़ के कलियों सी 
तुम ख़ूबसूरत ग़ज़ल,शायरी लिखना मुझ पर
काश तुम बनो ज़िस्म मेरा बसे जां तुझमें मेरी
उर के कैनवास ऐसे चित्र उकेरना रंग भरकर । 

कब बरसोगी मेघा झमाझम मेरे इस शहर में
बारिश की फुहारों में भींगने को जी चाहता है
झूम कर बरसो हठ छोड़ो ओ सावन की रानी 
मन-वदन बौछारों से सींचने को जी चाहता है ।

तुम सूरज बनके चमको अग़र
तो मैं भी गुनगुनी धूप बन जाऊंगी
देख लो प्यार से जो मुझे भर इक नज़र 
तो मैं भी ज्योति तेरे नयनों की बन जाऊंगी
मुस्कान ग़र बिखेर दो जो मेरे मरू अधरों पर 
प्रीत की ओस से तृषित उर तेरा तर कर जाऊंगी । 

मेरे ख़्यालों,ख़्वाबों में ऐसे तो तुम रोज आते हो
मगर सामने आने से इतना क्यों हिचकिचाते हो
मुझे दरियाफ़्त है हाल उधर भी इधर जैसे ही है
मगर ख़ामोशी के आवरण में ये सब छिपाते हो 
अधूरी प्यास बिन तेरे है अधूरी ज़िदगी बिन तेरे
सब जानते हुए भी फिर क्यों तुम आज़माते हो ।


जिसे बोल और कह कर साकार ना कर सकी  
उसे कागज़ों पर उतार कर आकार दे दिया
कुछ ढाल लिया मन के उद्गारों को गीतों में 
कुछ तराश दिया ग़ज़ल,शायरी,शेरों में
कुछ अंतर के छलकते भावों को गुनगुना लिया 
कुछ फ़न जी लिया परकोटे में नृत्य के लहज़ों में 
कुछ धड़कती आकाँक्षाओं पर अंकुश लगा 
अरमानों को दफ़ना दिया लरजते हर्फ़ों में 
कुछ ख़ुद को समझाकर फड़फड़ा लिया 
क़तरकर पंखों को पखेरू भाँति बंद पिंजड़ों में।  

भूमिकाओं में वक़्त गंवाए अच्छा या
गीत,ग़ज़ल,कविता सुनाएं अच्छा
हमें मंच पर समां बांधना आता नहीं
अनर्गल प्रलाप मंच पर भाता नहीं
आप मुग्ध हो झूमेंगे बनावटी अदाओं पर
के मंत्रमुग्ध तालियां बजाएंगे कविताओं पर ।

हर दिल में बस जाऊँ वो मोहब्बत हूँ मैं
कभी बहन कभी ममता की मूरत हूँ मैं
मैंने आँचल में टांक रखे हैं चाँद सितारे
माँ के कदमों में बसी एक जन्नत हूँ मैं 
हर दर्द,ग़म को छुपा लेती सीने में
लब पे आये कभी ना वो हसरत हूँ मैं
मेरे होने से ही है यह कायनात जवां
ज़िदगी की बेहद हसीं हकीकत हूँ मैं
हर रूप रंग में ढल कर संवर जाती हूँ
सब्र की मिसाल हर रिश्ते की ताकत हूँ मैं
अपने हौसले से तक़दीर को बदल दूँ
ऐसी पंखों में अपने रखती महारत हूँ मैं 
सुन लो ध्यान से ऐ दुनिया वालों 
हाँ एक औरत हूँ मैं औरत हूँ मैं ।

शैल सिंह 

सोमवार, 1 अगस्त 2022

लघु कवितायेँ

           लघु कवितायेँ 


उतावली सी बावली आँखें विकल 
ना जाने क्या ढूंढतीं हैं चारों तरफ़ । 

तूं ही मेरा श्रृंगार तूं ही मेरे रूप-रंग का नूर
तुझी से मेरी दुनिया तूं जीवन का कोहिनूर।  

किसपे नज़रें इनायत करें प्यार से
कोई दिखता नहीं तुम सा शहर में
देखा लम्बे सफ़र में बहुत दूर तक
कोई दिखता नहीं तुम सा दहर में ।

कभी हम भी हसीं थे जवां थे कभी हम
मग़र उम्र ने हमसे धोखा किया
कभी रस्क करता था अंजन नयन में  
मग़र आँखों ने हमसे धोखा किया ।


नहीं करती उसकी बेरूखी की परवाह मैं
पास हजारों इंतजामात हैं दिल बहलाने के
उसे पसन्द घर में छितरी खामोशी तन्हाई
मेरे मुरादों की ज़िद चलना साथ ज़माने के ।

यह घर प्रिये तुम्हारा आजा तुझे बुला रहा है
बड़ी हसरत से तेरे लिए फ़ानूस सजा रहा है
तेरे लिए ही खुला रखा है दिल का दरवाजा 
शिद्दत से राह ताके तेरा रास्ता निहार रहा है।

मृगनयनी जैसे हों नयन 
हिरनी जैसी चाल
अनारदाना से दांत हो
तोते जैसी सुतवां नाक 
कमर कइन सी बलखाती
लहराती नागिन से बाल
होंठ गुलाब की पंखुड़ी 
टमाटर जैसे लाल हों गाल
सुराही जैसी गर्दन हो
तराशा संगमरमर सा देह कमाल
ऐसी चाह अनोखी वर वालों की
बेशुमार दहेज हो वो भी बेमिसाल। 

ऐ ईश्क़ तुमसे ईश्क़ में
मिला मुझे बताऊं क्या
दर्द मिला ज़ख़्म मिला 
बदले वफ़ा के मिला सिला क्या
चैन गया,नींद गई सुकूं भी गया
गिरा ज़िग़र पे जाने और क्या-क्या ।

देख कर भी हमें इस तरह महफ़िलों में
ना पहचानने का  बेकार आडम्बर करो
भ्रम ये पालो न बेपरवाह हकीक़त से हूँ
ख़ुदा के लिए ना पाखण्ड  भयंकर करो 
ज़िन्दगी का सफ़र समझो लम्बा बहुत है
कभी न कभी जरूरत मेरी पड़ेगी जरूर
छोड़ देंगे अहबाब,कारवां भी मंझधार में 
तब तुम मुझे याद करोगे तोड़ सब गरूर 
मैं तो वही बदला जमाना पर बदली न मैं
किये एहसानों का भी बजाई डफली न मैं। 

शैल सिंह 

      


" हनक बर्दाश्त नहीं होती अब सूरज के हण्टर की "

हनक बर्दाश्त नहीं होती अब सूरज के हण्टर की


बेचैन सभी चराचर हैं,चौपाये,बनजारे हैं बदहाल
तपन दरका रही धरती उमस से जां है खस्तेहाल
सुन धरा का अनुनय भी तरस आता नहीं तुझको
दहकना छोड़के सूरज जगत का देखो सुरतेहाल ।

सुबह से ही चढ़ाए पारा वदन झुलसा रहे हो तुम
तर-तर तन से चूवे पसीना अकड़ क्यूँ रहे हो तुम
फसलें सभी हुईं चौपट विरां-वीरां निरा खलिहान
घटा दुबक बैठी अंबर में हे इंद्रदेव करो कल्याण ।

सूखा ताल,पोखर,कुंआ गागरें रीती-रीती घर की
जल संकट बहुत भारी सुनले बादल जरा हर की
बड़ी आशा से नभ ताकता माथे हाथ धरे किसान
हनक बर्दाश्त नहीं होती अब सूरज के हण्टर की ।

मुख म्लान निष्प्राण काया अश्रु से भरे नयन देखो
सुनो गुहार तितर की पपिहा की पिऊ रटन देखो
मरूधर प्यासी परदेशी रंगरसिया बन कर आजा
नन्हीं बूँदों का टिप-टिप  सुना सरगम श्रवण देखो ।

ना कोयलें कूंकतीं वृक्षों पे,ना नाचते मोर बागों में
तरकश ताने कर्कश धूप ना खेलते भौंरे फूलों में
पीले पात दरख़्त सूखा  क़हर कुदरत का भीषण
बरस श्यामल घटा,गूंजा दे मल्हार निर्जन गुलों में ।

क्यों भूले डगर बादल ज्येष्ठ ,आषाढ़ विकल बीता
प्रचण्ड साम्राज्य सूरज का जगत कुंए का है रीता
मौन क्षोभ निराशा  से मेढकों,झींगुरों  की पलटन
झमाझम बरसो मेघा गाये पुरवैया भी सहक चैता ।

चराचर---संसार के सभी प्राणी ,  चौपाये--मवेशी     

शैल सिंह                                       

शनिवार, 30 जुलाई 2022

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा

हिंदी नहीं तो हिंदुस्तान कैसा


जब दूर होगी हमसे,हिंदुस्तान से हिंदी
फिर अंग्रेज़ी के साथ हमारा क्या होगा
गंगा,जमुनी  तहज़ीब संस्कृति, सभ्यता
हमारे सनातन,धर्म का आगे क्या होगा ,

अंग्रेजी को आबाद कर चन्द हिमायती
राष्ट्रभाषा का अनादर कितना करते हैं
हमारी सांस्कृतिक विरासतों के गढ़ में  
इसी अशिष्ट लिए उद्धत इतना रहते हैं ,

अंग्रेजों को तो खदेड़ दिया इस मुल्क़ से 
ठाठ से ये अंग्रेजी यहाँ पोषित होती रही
ग़फ़लत में हमारी इसी सौतन भाषा संग  
सनातनी भाषा पग-पग शोषित होती रही,

अंग्रेजी की वक़ालत करने वालों की बस     
हिंदुस्तान में मुश्किल से मुट्ठी भर तादात 
हिंदी करोड़ों भारतीयों के जुबां की रानी  
कैसे करें भला पराई भाषा हम बरदाश्त,

रंग-ढंग ना चाल-चलन,रत्ती भर तहज़ीब 
ना छोटे-बड़ों के आदर-सम्मान का भाव 
ख़ाक़ करेगी बेअदब मुकाबला हिंदी का
जिसमें रखते देशप्रेमी नहीं जरा भी चाव,

मानते हैं अवांछनीय नहीं है कोई भाषा
अनेक भाषाओं का ज्ञान बुरा नहीं होता  
राष्ट्रभाषा का हो अपमान इस ड्योढ़ी पे 
ये ससुरी आँख तेरेरे स्वीकार्य नहीं होता ,

हिंदी का प्रचार-प्रसार,पोषण संवर्धन कर 
मातृभाषा अर्श पे ला जगत को दर्शाना है  
भारतीय  संस्कृति के सनातनी प्रवाहों को 
भारतवासी कोटि-कोटि अक्षुण्ण बनाना है।

                                             शैल सिंह 

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