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कहीं चाहत न खता बन जाए

कहीं चाहत न खता बन जाए   अँधेरे पूछते कौतूहल से   शमा  किसने जलाई है  पूनम के चाँद सा रौशन  कर रही मेरी तन्हाई हैं । शय्या के हर सलवट में  सुगन्ध   तेरी  समाई है अन्तर्मन जड़ चेतन में  जीवन्त तेरी परछाई है । हृदय के अनंत सागर में लहराते तुम लहरों सा दमकते कुमकुम जैसे हो दिवाकर  के किरणों सा । घायल हुई दीदार से तेरे  मन रहता मेरा अवश सा इंद्रजाल रूपी झील में तेरे खिला रहता रूप कंवल सा । जब भी करती हूँ कोशिश   लिख तेरा नाम मिटाने की लगती पेंग मारने प्रीत तेरी जब करूँ हठ तुझे भुलाने की । मन ही मन हूँ लगी पूजने चेष्टा की जबभी ये बताने की कहीं चाहत ख़ता न बन जाए डरा दीं आँखें जमाने की । मादक सी आँखों में मेरे  माज़ी बादल बन घुमड़ता है बेमौसम बारिश की तरह  टपाटप अनायास बरसता है । कैसे बहलाऊँ पगले मन को बावरा मन नहीं बहलता है इस क़दर बसा है तूं सांसों में  धड़कन बन धड़कता है । बेबस बहुत  मोहब्बत है  ...